Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ
१) अव्यथ-परीषह, उपसर्ग आदि की व्यथा से पीड़ित होने पर भी क्षोभित नहीं होना।
२) असम्मोह किसी भी प्रकार से मोहित नहीं होना । ३) विवेक- स्व और पर अर्थात् आत्म और अनात्म के भेद को समझना । भेदविज्ञान का ज्ञाता होना।
४) व्युत्सर्ग- शरीर, उपधि आदि के प्रति ममत्व भाव का पूर्ण त्याग दूसरे शब्दों में पूर्ण निर्ममत्व से युक्त होना।
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इन चार लक्षणों के आधार पर हम यह बता सकते हैं कि किसी व्यक्ति में शुक्लध्यान संभव होगा या नहीं।
स्थानांगसूत्र में शुक्लध्यान के चार आलम्बन बताये गये ५१. क्षान्ति (क्षमाभाव), २. मुक्ति (निलभता), ३. आर्जव (सरलता) और ४. मार्दव (मृदुता)। वस्तुतः शुक्लध्यान के ये चार आलम्बन चार कषायों के त्याग रूप ही हैं, शान्ति में क्रोध का त्याग है और मुक्ति में लोभ का त्याग है। आर्जव माया ( कपट) के त्याग का सूचक है तो मार्दव मान- कषाय के त्याग का सूचक है।
इसी ग्रन्थ में शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख भी हुआ है, किन्तु ये चार अनुप्रेक्षाएँ सामान्य रूप से प्रचलित १२ अनुप्रेक्षाओं से क्वचित् रूप में भिन्न ही प्रतीत होती हैं। स्थानांग में शुक्लध्यान की निम्न चार अनुप्रेक्षाएँ उल्लिखित ८
१) अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा संसार के परिभ्रमण की अनन्तता का विचार करना।
३) अशुभानुप्रेक्षा संसार, देह और भोगों की अशुभता का विचार
२) विपरिणामानुप्रेक्षा- वस्तुओं के विविध परिणमनों का विचार वशीकरण, स्तम्भन आदि षट्कर्मों के लिए मंत्र-सिद्धि की जो चर्चा है
करना।
वह वैदिकधारा का प्रभाव है, क्योंकि उसके बीज अथर्ववेद आदि में भी हमें उपलब्ध होते हैं, जबकि ध्यान, समाधि आदि के द्वारा आत्मविशुद्धि की जो चर्चा है वह निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा का प्रभाव है। किन्तु यह भी सत्य है कि सामान्य रूप से श्रमणधारा और विशेष रूप से जैनधारा पर भी हिन्दू तान्त्रिक साधना और विशेष रूप से कौलतंत्र का प्रभाव आया है ।
करना।
४) अपायानुप्रेक्षा राग, द्वेष से होने वाले दोषों का विचार करना । शुक्लध्यान के चार प्रकारों के सम्बन्ध में बौद्धों का दृष्टिकोण भी जैन-परम्परा के निकट ही है। बौद्ध परम्परा में चार प्रकार के ध्यान माने गये हैं।
१) सवितर्कसविचारविवेकजन्य प्रीतिसुखात्मक प्रथम ध्यान । २) वितर्कविचाररहित समाधिजप्रीतिसुखात्मक- द्वितीय ध्यान। ३) राग और विराग के प्रति उपेक्षा तथा स्मृति और सम्प्रजन्य से युक्त उपेक्षास्मृतिसुखविहारी - तृतीय ध्यान ।
जैन साधना एवं आचार
चाद्ये पूर्वविदः - ९ / ३९) श्वेताम्बर मूलपाठ और दिगम्बर मूलपाठ में तो अन्तर नहीं है, किंतु 'च' शब्द से क्या अर्थ ग्रहण करना चाहिए, इसे लेकर मतभेद है। श्वेताम्बर- परम्परा के अनुसार उपशान्त कषाय एवं क्षीणकषाय पूर्वधरों में चार शुक्लध्यानों में प्रथम दो शुक्लध्यान सम्भव हैं। बाद के दो, केवली (सायोगी केवली और आयोगी केवली) में सम्भव हैं। दिगम्बर- परम्परा के अनुसार आठवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक शुक्लध्यान है। पूर्व के दो शुक्लध्यान आठवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती पूर्वधरों में सम्भव होते हैं और शेष दो तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवार्ती केवली को होते हैं।८७
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जैन-ध्यान साधना पर तान्त्रिक साधना का प्रभाव पूर्व में हम विस्तार से यह स्पष्ट कर चुके हैं कि ध्यान-साधना श्रमण परम्परा की अपनी विशेषता है, उसमें ध्यान-साधना का मुख्य प्रयोजन आत्माविशुद्धि अर्थात् चित्त को विकल्पों एवं विक्षोभों से मुक्त कर निर्विकल्पदशा या समाधि (समत्व) में स्थित करना रहा है। इसके विपरीत तान्त्रिक साधना में ध्यान का प्रयोजन मन्त्रसिद्धि और हठयोग में षटचक्रों का भेदन कर कुण्डलिनी को जागृत करना है। यद्यपि उनमें भी ध्यान के द्वारा आत्मशांति या आत्मविशुद्धि की बात कही गई है, किन्तु यह उनपर श्रमणधारा के प्रभाव का ही परिणाम है, क्योंकि वैदिकधारा के अथर्ववेद आदि प्राचीन ग्रन्थों में मंत्र सिद्धि का प्रयोजन लौकिक उपलब्धियों के हेतु विशिष्ट शक्तियों की प्राप्ति ही था। वस्तुतः हिन्दू तान्त्रिक साधना वैदिक और श्रमण परम्पराओं के समन्वय का परिणाम है। उसमें मारण, मोहन,
वस्तुतः जैन-तंत्र में सकलीकरण, आत्मरक्षा, पूजाविधान और षट्कर्मों के लिए मन्त्रसिद्धि के विधि-विधान हिन्दू तन्त्र से प्रभावित हैं। मात्र इतना ही नहीं, जैन ध्यान-साधना, जो श्रमणधारा की अपनी मौलिक साधना पद्धति है, पर भी हिन्दू तंत्र विशेष रूप से कौलतंत्र का प्रभाव आया है। यह प्रभाव ध्यान के आलम्बन या ध्येय को लेकर है। जैन - परम्परा में ध्यान-साधना के अन्तर्गत विविध आलम्बन की चर्चा तो प्राचीन काल से थी, क्योंकि ध्यान-साधना में चित्त की
४) सुखदुःख एवं सौमनस्य- दौर्मनस्य से रहित असुख अदुःखात्मक उपेक्षा एवं परिशुद्धि से युक्त चतुर्थ ध्यान ।
इस प्रकार चारों शुक्लध्यान बौद्ध परम्परा में भी थोड़े शब्दिक एकाग्रता के लिए प्रारम्भ में किसी न किसी विषय का आलम्बन तो लेना अन्तर के साथ उपस्थित हैं। ही पड़ता है। प्रारम्भ में जैन- परम्परा में आलम्बन के आधार पर धर्मध्यान को निम्न चार प्रकार में विभाजित किया गया था
योग - परम्परा में भी समापत्ति के चार प्रकार बतलाये हैं, जो कि जैन- परम्परा के शुक्लध्यान के चारों प्रकारों के समान ही लगते हैं, समापत्ति के निम्न चार प्रकार हैं- १. सवितर्का २. निर्वितर्का ३. सविचारा और ४ निर्विचारा |
१. अज्ञाविचय, ३. विपाक विचय
२. अपायविचय ४. संस्थानाविय
इन चारों की विस्तृत चर्चा हम पूर्व में कर चुकें हैं। यह भी शुक्लध्यान के स्वामी के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र के (शुक्ले स्पष्ट है कि धर्मध्यान के ये चारों आलम्बन जैनों के अपने मौलिक हैं।
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