Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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है।
- यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार है। यह तभी संभव है, जब संयमी सजग रहे, एक कवि ने क्या ग्वाले ने महावीर के कानों में कीलें मारी थीं। कर्म किसी को ही ही सुंदर कहा है
छोड़ता, चाहे वह तीर्थकर ही क्यों न हो। कर्म को कोई शर्म नहीं काँटे हों या फूल, फर्क क्या पड़ता है बोलो। कुटिया हो या महल, आँख भीतर की खोलो।।
आप लोग व्यावहारिक बातों में तो जाग्रत रहते है, किन्तु माटी हो या स्वर्ण, जागना तो भीतर है।
धर्म के विषय में अजाग्रत रहते हैं। घी खरीदते हैं, तो सूंघ कर, जो भीतर से जगा, कौन उससे बढ़कर है।।
परीक्षा करके लेते हैं। एक घड़ा खरीदते हैं तो उसे बजाकर देख आपको जैसा सर्प का भय है, वैसा पाप का भय है क्या?
लेते हैं, कहीं फूटा न हो। कभी चखकर, कभी सूंघकर, कभी घर में सर्प कुंडली मार कर बैठा हो तो नींद आयेगी क्या?
बजाकर माल लेते हैं, किन्तु अपने जीवन में कहीं गुण के बदले __ कभी नहीं। दिमाग में भय का भत सवार रहेगा। इसी अवगुण तो गुण का रूप लेकर प्रवेश नहीं कर रहे हैं। इस बात प्रकार अपने अन्तर्कक्ष में विविध पाप रूपी सर्प कंडली मारकर का विचार नहीं करते। आजकल बाहर का प्रकाश बढ़ा है। अंदर बैठे हैं। उन्हें हटाने का कभी विचार भी आता है क्या? जैसे सर्प
का विचार-प्रकाश मंद हो रहा है। भरतजी की भाँति जागृति से डरकर जागते रहते हैं वैसे ही पाप से डर कर अंदर से जाग्रत
करनी चाहिये। उन्होंने तो वृद्ध श्रावकों को नियुक्त कर दिया था रहेंगे तो आत्मा में स्वस्थता, शांति और निश्चिन्तता आयेगी।
कि अन्तर्जागरण का संदेश देते रहें। मोटर-डायवर को मोटर चलाने का लायसेंस तभी मिलता तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है, 'कषाय-योग-निग्रहः संयमः।' है. जब वह जाग्रत. सावधान और ठीक ढंग से गाडी चलाने की अर्थात्, कषाय और मन, वचन, काया के योगों का निग्रह परीक्षा दे देता है। ड्रायवर को आगे, पीछे दायें, बायें सब तरफ
करना संयम है। जिस प्रमाण में निग्रह हो उसी प्रमाण में संयम से देखना होता है। ऐसे ही हमने यदि अपने जीवन की गाडी को है। गृहस्थ का निग्रह कम हो जाता है अतः वह अल्पसंयमी है. पाप की दर्घटना से क्षतिग्रस्त कर दिया तो मोटर चालक की जो-पूर्ण निग्रह कर लेते हैं, वे अनुत्तर संयमी हैं। धवला टीका में भाँति अपना ही मनुष्य-जीवन का लायसेंस छीन लिया जायेगा।
कहा गया है- संयमनं संयमः।' अर्थात् उपयोग को पर-पदार्थों फिर निकट भविष्य में मोक्ष दिलाने वाला मनुष्य - भव मिलना
से हटाकर आत्मसम्मुख करना, अपने में सीमित करना संयम कठिन हो जायेगा।
है। उपयोग में स्वसम्मुखता-स्वलीनता ही संयम है। सम्यकज्ञान
के आधार से स्वयं का स्वयं पर अनुशासन करना संयम है। अन्तर्जागरण के अभाव में दुष्प्रवृत्ति हो जाती है। भगवान् महावीर अपने पूर्व भव में त्रिपृष्ठ वासुदेव थे। उत्तम कुल था,
'आत्मनं प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।' जो स्वयं की वासुदेव का पद था, पर पद का अहंकार और राजसत्ता का मद ।
आत्मा के प्रतिकूल हो ऐसा व्यवहार दूसरों के साथ नहीं करना उन्माद में ले गया। वे कर्णप्रिय संगीत के रसिक बने। शय्या चाहिये। अग्रेजी में भी कहावत हैपालक को आज्ञा दी कि जब मुझे नींद आ जाये तो संगीत बंद Do unto others, as you would have others do unto you. करवा देना। पर शय्यापालक स्वयं संगीत में इतना बेभान हो अर्थात् आप जैसा व्यवहार अन्य से चाहते हैं, वैसा ही गया कि उसे पता ही न रहा कि महाराज कब सो गये हैं। सूर्योदय व्यवहार स्वयं भी अन्य के साथ करें। तक संगीत चलता रहा। जब महाराज जागे तो शय्यापालक से।
संयम दो प्रकार का है- इन्द्रियसंयम और मनसंयम। पाँचों पूछा कि संगीत बंद क्यों नहीं करवाया? उसने निवेदन किया कि ,
इंद्रियों को विशेषकर स्पर्श इंद्रिय को नियंत्रण में रखना, उन्हें वह संगीत में इतना बेभान हो गया था कि उसे महाराज के
विषयों में न जाने देना इंद्रियसंयम है। किसी ने कहा है
। निद्राधीन हो जाने का ध्यान ही न रहा।
इंद्रियों के न घोड़े, विषयों में अड़ें। महाराज को इतना क्रोध आया कि शय्यापालक के कानों
जो अड़ें भी तो संयम के कोड़े पड़ें। में उबलता हुआ शीशा डलवा दिया। उसी कर्म के विपाक स्वरूप तन के रथ को सुपथ पर चलाते रहें। . dansarsansarsansarsansarsansarsasdaridra-[१ २ arovidinaldastarsidadira d dhasadmaa
सयम
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