Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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जैन-आचारसंहिता
डॉ. सुधा जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी...."
धर्मसाधना का आधार आचार होता है, क्योंकि आचार हैं। परन्तु ध्यान का स्थिरीकरण मन की स्थिरता पर निर्भर करता से ही साधक के संयम में वृद्धि होती है, समता का विकास है, जिस साधक ने मन को अपने अधीन कर लिया, उसके लिए होता है। फलतः साधक आध्यात्मिक ऊँचाइयों को छू पाता है। संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं, जिसे वश में न किया जा योग के लिए चारित्र एक आवश्यक अंग है। हमारी भारतीय सके। अत: मन को वश में करना ही सम्यक् योग का प्रथम परम्परा में यह कहा गया है कि व्यक्ति का जैसा आचार होता सोपान है। कहा भी गया है - मन की समाधि योग का हेतु तथा है, वैसा ही उसका विचार भी होता है। आचार और विचार दोनों तप का निदान है, क्योंकि मन को केन्द्रित करने के लिए तप एक-दूसरे के पूरक हैं, इसलिए इन दोनों के परिपालन से ही आवश्यक है। तप शिवशर्म का मोक्ष का मूल कारण है। सम्यक् चारित्र का उत्कर्ष होता है। लेकिन जब तक मन वासनाओं
ध्यान और मन का संबंध अत्यन्त घनिष्ठ है। ध्यान का से निवृत्त नहीं हो जाता, तब तक न चित्त की स्थिरता प्राप्त हो
स्थिरीकरण मन की स्थिरता पर ही निर्भर करता है। आचार्य सकती है, न धर्म-ध्यान हो सकता है और न योग हो सकता है।
हेमचन्द्र ने मन की चार अवस्थाओं का वर्णन किया है - १. मन के कारण ही इन्द्रियाँ चंचल होती हैं, जिससे रागादि प्रकृतियों विक्षिप्त मन २. यातायात मन ३. श्लिष्ट मन और ४. सलीन की वृद्धि होती है तथा कर्म-प्रकृतियों का बंधन होता है। चंचल
मना प्रथम दो अवस्थाओं में अर्थात् विक्षिप्त और यातायात में मन को सर्वथा स्थिर करना योग का प्रथम कार्य है, क्योंकि मन स्वभाव से चंचल होता है। दोनों में अंतर इतना ही है कि चंचल मन द्वारा किया गया कार्य चाहे पुण्य-प्रकृति का हो या प्रथम अवस्था में चंचलता अधिक होती है और द्वितीय अवस्था पापप्रकृति का, दोनों में ही संसारबंधन होता है। इसलिए वासनाओं
में चंचलता प्रथमावस्था की अपेक्षा थोड़ी कम होती हैं। अत: से विमुक्ति अथवा ब्रह्मचर्य को योग में आवश्यक माना गया
- इन दोनों की शान्ति के लिए अभ्यास आवश्यक है। इसी प्रकार है। अतः सम्यक् योग साधना के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक
श्लिष्ट मन की अवस्था यातायात के बाद प्रारंभ होती है। श्लिष्ट है कि मन को स्थिर कर चित्त को शुद्ध किया जाए।
अवस्था में मन का विरोध होने से चित्तवृत्तियाँ शांत हो जाती हैं जैन-दर्शन में सम्यक् चारित्र को योग-साधना का मूल तथा साधक को आंतरिक शक्ति का आभास होने लगता है। आधार माना गया है। योगशास्त्र में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान अंत में सुलीनावस्था में साधक आत्मलीन हो जाता है तथा उसे तथा सम्यक् चारित्र को मोक्ष का कारण कहा गया है। जिनमें परमानंद की स्वानुभूति होने लगती है। चारित्र का स्थान प्रमुख है, क्योंकि चारित्र ज्ञान और दर्शन की
मन या चित्त की शुद्धि के उपाय - जैन-ग्रन्थ षोडशक में
जा सिद्धि का कारण है। सम्यक् चारित्र के स्वरूप को स्पष्ट करते
चित्तशुद्धि के पाँच प्रकारों का वर्णन आया है। चित्तशुद्धि के हुए कहा गया है कि संसार के कारणभूत राग-द्वेषादि की निवृत्ति
बिना साधक साधना में संलग्न हो ही नहीं सकता। अतः योग के लिए कृतसंकल्प विवेकी पुरुष का शरीर, वचन की बाह्य
साधना के आधारभूत तत्त्व के रूप में चित्तशुद्धि की आवश्यकता क्रियाओं से एवं आभ्यन्तर मानस क्रिया से विरक्त होकर
पर बल दिया गया है। वे पाँच प्रकार निम्नांकित हैं - स्वरूपावस्थिति प्राप्त करना सम्यक् चारित्र है। चारित्र की दृढ़ता एवं संपन्नता के लिए जैन-दर्शन में विभिन्न व्रतों, क्रियाओं, विधियों, १. प्रा
१. प्रणिधान - आचार-विचार को संतुलित रखते हुए निम्न नियमों-उपनियमों का विधान किया गया है, जिसके अंतर्गत
कोटि के जीवों के प्रति राग-द्वेष की भावना का न रखना प्रणिधान तप, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि प्रमुख
कहलाता है।
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