Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार होता है, वैसे ही अणुव्रतों के अभाव में श्रावक-धर्म निष्प्राण उसकी शक्ति से ज्यादा काम लेना या बोझा लाद देना अतिभार है। लगता है। यही कारण है कि अणुव्रतों को श्रावक का मूलगुण
(ङ) अन्नापाननिरोध - नौकर आदि को समय पर कहा जाता है। महाव्रतों का पालन तीन योग यानी मन, वचन,
खाना न देना, पूरा खाना न देना, अपने पास संग्रह होने पर भी काया तथा तीन करण यानी करना, करवाना और अनुमोदन
आवश्यकता के समय किसी की सहायता न करना आदि अन्नापान करना, से पालन किया जाता है। जबकि अणुव्रतों का पालन
-निरोध कहलाता है। तीन योग तथा दो करण (करना, करवाना) से किया जाता है।२५ श्रावक के मूलगुण रूपी पाँच अणुव्रतों का विवरण इस
२. स्थूल मृषावाद - असत्य या झूठे व्यवहार का त्याग करना प्रकार है -
स्थल मृषावाद है। जैसे हिंसा को न करना प्राणातिपात विरमण
है और उससे साधक को बचना आवश्यक है। उसी प्रकार १. स्थूल प्राणातिपातविरमण - गृहस्थ साधक स्थूल हिंसा
स्थूल मृषावाद यानी झूठ से बचना भी शक्य है। अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा से विरत होता है। इसलिए इस अणुव्रत का नाम स्थूल प्राणातिपात-विरमण रखा गया है।२२
उपासकदशांग में कहा गया है कि मैं स्थूल मृषावाद का इसे अहिंसाणुव्रत भी कहा जाता है। जैसा कि उपासक-दशांगसूत्र
यावत् जीवन के लिए मन, वचन और काम से त्याग करता हूँ, में कहा गया है कि मैं किसी भी निरपराध-निर्दोष स्थूल त्रस
मैं न स्वयं मृषा भाषण करूँगा न अन्य से करवाऊँगा।२६ झूठ प्राणी की जानबूझकर संकल्पपूर्वक मन, वचन और कर्म से न
बोलने के कारणों का उल्लेख करते हुए श्रावक-प्रतिक्रमण में तो स्वयं हिंसा करूँगा और न करवाऊँगा।२३ आचार्य हेमचन्द्र ने
पाँच प्रकार के स्थूल मृषा का निरूपण किया गया है।२७ जो इस तो यहाँ तक कहा है - 'अहिंसा धर्म का ज्ञाता और मुक्ति का
प्रकार हैंअभिलाषी श्रावक स्थावर जीवों की भी निरर्थक हिंसा नहीं (१) पुत्र-पुत्रियों के विवाह के निमित्त सामने वाले पक्ष के करे।२४
सम्मुख झूठी प्रशंसा करना-करवाना आदि। श्रावक द्वारा सावधानीपूर्वक व्रत का पालन करते हुए भी (२) पशु-पक्षियों के क्रय-विक्रय में मिथ्या प्रशंसा का आश्रय कभी-कभी प्रमादवश दोष लगने की संभावना रहती है। अतः लेना। निम्नलिखित दोषों से साधक को बचना चाहिए।२५।
(३) भूमि के संबंध में झूठ बोलना-बुलवाना। (क) बन्ध - किसी भी त्रस प्राणी को कठिन बंधन से
(४) झूठी गवाही देना-दिलवाना और
।। बाँधना या उसे किसी भी इष्ट स्थान पर जाने से रोकना। अपने अधीनस्थ व्यक्तियों को निश्चित समय से अधिक काल तक
(५) रिश्वत खाना-खिलाना आदि। रोकना, उनसे निर्दिष्ट समय के उपरान्त कार्य लेना आदि बंध है। इसी को आचार्य हेमचन्द्र ने कन्यालीक, गो-अलीक, (ख) वध - किसी भी प्राणी को मारना वध है। इनके ।
भूमिअलीक, न्यासापहार तथा कूट-साक्षी आदि के रूप में अतिरिक्त निर्दयतापूर्वक क्रोध में अपने आश्रित किसी भी
निरूपित किया है और कहा है कि ये सभी लोक-विरुद्ध हैं, व्यक्ति को मारना-पीटना, गाय, भैंस, घोड़ा, बैल आदि को
विश्वासघात के जनक हैं तथा पुण्य-नाशक हैं, इसलिए श्रावकों लकड़ी, चाबुक, पत्थर आदि से मारना, किसी का अनैतिक ढंग
को स्थूल असत्य से बचना चाहिए।२८ साधक कितनी भी से शोषण कर अपनी स्वार्थपूर्ति करना आदि वध के अंतर्गत ही
सावधानीपूर्वक स्थूल मृषावाद-विरमण का पालन करे, फिर आते हैं।
भी दोषों की संभावना बनी रहती है। उपासकदशांग में इन्हीं
दोषों से बचने के लिए पाँच प्रकार बताए गये हैं२९ - (ग) छविच्छेद - किसी भी प्राणी का अंगोपांग काटना
(क) सहसा - अभ्याख्यान - बिना सोचे-समझे किसी छविच्छेद कहलाता है।
पर झूठा आरोप लगा देना, किसी के प्रति लोगों में गलत धारणा (घ) अतिभार - प्राणियों से आवश्यकता से अधिक, पैदा करना, सज्जन को दुर्जन कहना आदि सहसा-अभ्याख्यान
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