Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ बँचा करता है, वे ऊँचे जीवन की साधना को कैसे प्राप्त कर सकते हैं? अतएव जो साधना करना चाहते हैं, उन्हें खान-पान की लोलुपता को त्याग देना चाहिए और वास्तविक आवश्यकता से अधिक नहीं खाना चाहिए ।
हे मनुष्य ! तू खाने के लिए नहीं बना है, किन्तु खाना तेरे लिए बना है। तुझे भोजन के लिए नहीं जीना है, जीने के लिए भोजन करना है। भोजन तेरे जीवन विकास का साधन होना चाहिए। कहीं वह जीवन-विनाश का साधन न बन जाए।
इस प्रकार कान और आँख के साथ-साथ जो जीभ पर भी पूरी तरह अंकुश रखते हैं, वही ब्रह्मचर्य की साधना कर सकते हैं। जो अपनी जीभ पर अंकुश नहीं रखेगा और स्वाद - लोलुप होकर चटपटे मसाले आदि उत्तेजक वस्तुओं का सेवन करेगा, जो राजस और तामस भोजन करेगा, उसका ब्रह्मचर्य निश्चय ही खतरे में पड़ जाएगा।
ब्रह्मचर्य की साधना जितनी उच्च और पवित्र है, उतनी ही उस साधना में सावधानी की आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए इन्द्रियनिग्रह की आवश्यकता है और मनोनिग्रह की भी आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य के साधक को फूँक-फूँक कर पैर रखना पड़ता है। यही कारण है कि हमारे यहाँ, शास्त्रकारों ने, ब्रह्मचारी के लिए अनेक मर्यादाएँ बतलाई हैं। शास्त्र में कहा गया है. आओ थीजणाइण्णो, थी - कहा य मणोरमा । सथवो चेव नारीणं, तेंसिमिन्दिय - दंसणं ॥ कूइयं रुइयं गीअं, हांस भुत्तासिआणि य । पणीअं भत्तयाण च, अइमायं पाण भोयणं ॥
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स्त्रीजनों से युक्त मकान में रहना और बहुत आवागमन रखना, स्त्रियों के सम्बन्ध को लेकर मनोमोहक बातें करना, स्त्री के साथ एक आसन पर बैठना, बहुत घनिष्ठता रखना, उनके अंगोपांगों की ओर देखना, उनके कूजन, रुदन और गायन को मन लगा कर सुनना, पूर्व-भुक्त भोगोपभोगों का स्मरण किया करना । उत्तेजक आहार- पानी का सेवन करना और परिमाण से अधिक भोजन करना, ये सब बातें ब्रह्मचारी के लिए विष के समान हैं। और यही बात ब्रह्मचारिणी को भी समझना चाहिए।
अभिप्राय यह है कि कान, आँख जीभ तथा मन जो जितना काबू पा सकेगा, वह उतनी ही दृढ़ता के साथ ब्रह्मचर्य की
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जैन-साधना एवं आचार
साधना के पथ पर अग्रसर हो सकेगा। इस रूप में जो जीवन को सीधा-साधा बनाएगा, उसमें पवित्रता की लहर पैदा हो जाएगी और वह अपने जीवन को कल्याणमय बना सकेगा । तब सारी जड़ और जीव प्रकृति पर उसका निष्कटंक शासन स्थापित हो जाएगा । - ब्रह्मचर्यदर्शन से साभार
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ब्रह्मचर्य - सूत्र -
अबम्भ चरियं घोरं, पमायं दुरहिट्ठियं । नायरन्ति मुणी लोए, भेयाय यण वज्जिणो ॥1 ॥
जो मुनि संयम-घातक दोषों से दूर रहते हैं, वे लोक में भी दुःसेव्य, प्रमादस्वरूप और भयंकर अब्रह्मचर्य का कभी सेवन नहीं करते ।
रहते हुए
विभूसं परिवज्जेज्जा, सरीर - परिमंडणं । बंभर रओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धारए ॥2 ॥
ब्रह्मचर्य - रत भिक्षु को शृंगार के लिए शरीर की शोभा और सजावट का कोई भी शृंगारी काम नहीं करना चाहिए ।
जहाँ दवग्गी परिन्धणे वणे, समारुओ नोवसमं उवे । एविन्दियग्गी वि पगाम भोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सई ॥3॥
जैसे बहुत ज्यादा ईंधन वाले जंगल में पवन से उत्तेजित दावाग्नि शान्त नहीं होती, उसी तरह मर्यादा से अधिक भोजन करने वाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि भी शान्त नहीं होती। अधिक भोजन किसी के लिए भी हितकर नहीं होता ।
मागिद्धि भवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्सन्तगं गच्छई वीयरागो ॥4॥
देवलोक सहित समस्त संसार के शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःख का मूल एक मात्र काम-भोगों की वासना ही है। जो साधक इस सम्बन्ध में वीतराग हो जाता है, वह शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःखों से छूट जाता है ।
देव दाणव गन्धव्वा, जक्ख रक्खस किन्नरा । भयारि नम॑सन्ति, दुक्करं जे करेन्ति तं ॥ 5 ॥
जो मनुष्य इस प्रकार दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी नमस्कार करते हैं।
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