Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ-जैन-साधना एवं आचार हेतु माना गया है।१९
स्वाध्याय के पाँच भेदों में अनुप्रेक्षा भी एक है।६ सूत्र के आगम में एक साथ बारह अनप्रेक्षा का उल्लेख नहीं है अथ का विस्मृति न हो इसलिए अर्थ का बार-बार चिन्तन किन्त उत्तरपर्वी साहित्य में उनका एक साथ वर्णन है। वारस- किया जाता है। अर्थ का बार-बार चिन्तन ही अनप्रेक्षा है।२७ अणुवेक्खा, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, शान्त-सधारस-भावना आदि ग्रंथों अनुप्रेक्षा में मानसिक परावर्तन होता है, वाचिक नहीं होता। का निर्माण तो मुख्य रूप से इन अनप्रेक्षाओं के लिए ही हुआ है। धर्म्य-ध्यान एवं शुक्लध्यान की भी चार-चार अनुप्रेक्षा बताई तत्त्वार्थसूत्र आदि में भी इनका पर्याप्त विवेचन उपलब्ध है। गई है। स्वाध्यायगत अनुप्रेक्षा, ध्यानगत अनुप्रेक्षा एवं बारह शान्त-सुधारस आदि कछ ग्रंथों में इन बारह भावनाओं के साथ अनुप्रेक्षा में अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु संदर्भ के मैत्री आदि चार भावनाओं को जोड़कर सोलह भावनाओं का अनुकूल उनके तात्पर्यार्थ में कथंचित् भिन्नता है। विवेचन किया गया है। जैन-साहित्य में बारह भावनाओं का प्राचीन ग्रंथों में अनुप्रेक्षा का तत्त्व-चिंतनात्मक रूप उपलब्ध उल्लेख बहुलता से प्राप्त है। अनित्य आदि अनुप्रेक्षा के पृथक्- है। यद्यपि धर्म्य एवं शुक्ल ध्यान की अनुप्रेक्षाओं का भी उल्लेख पृथक् प्रयोजन का भी वहाँ पर उल्लेख है। आसक्ति-विलय के है किंतु उनका भी चिंतनात्मक रूप ही उपलब्ध है। प्रेक्षाध्यान के लिए अनित्य अनुप्रेक्षा, धर्म-निष्ठा के विकास के लिए अशरण प्रयोगों में अनुप्रेक्षा के चिंतनात्मक स्वरूप के साथ ही उसके अनुप्रेक्षा, संसार से उद्वेग-प्राप्ति हेतु संसार-भावना एवं स्वजन- ध्येय के साथ तादात्म्य के रूप को भी स्वीकार किया गया है। मोह-त्याग के लिए एकत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया जाता अनुप्रेक्षा का प्रयोग सुझाव-पद्धति का प्रयोग है। आधुनिक विज्ञान है। इसी प्रकार अन्य अनुप्रेक्षाओं का विशिष्ट प्रयोजन है। की भाषा में इसे सजेस्टोलॉजी कहा जा सकता है। स्वभाव__उत्तराध्ययन-सूत्र में अनुप्रेक्षा के परिणामों का बहुत सुंदर
बदन दर परिवर्तन का अनुप्रेक्षा अमोघ उपाय है। अनुप्रेक्षा के द्वारा जटिलतम वर्णन उपलब्ध है। अनुप्रेक्षा से जीव क्या प्राप्त करता है, गौतम
आदतों को बदला जा सकता है। प्रेक्षा-ध्यान में स्वभाव-परिवर्तन के इस प्रश्न के समाधान में भगवान महावीर ने अनुप्रेक्षा के लाभ
के सिद्धान्त के आधार पर अनेक अनुप्रेक्षाओं का निर्माण किया बताए हैं। वहाँ पर अनुप्रेक्षा के छह विशिष्ट परिणामों का उल्लेख
गया है एवं उनके प्रयोगों से वाञ्छित परिणाम भी प्राप्त हुए हैं।
स्वभाव-परिवर्तन के लिए प्रतिपक्ष भावना का प्रयोग (१) कर्म के गाढ़ बंधन का शिथिलीकरण।
बहुत लाभदायी है। प्रतिपक्ष की अनुप्रेक्षा से स्वभाव, व्यवहार
और आचरण को बदला जा सकता है। मोह कर्म के विपाक पर (२) दीर्घकालीन कर्मस्थिति का अल्पीकरण।
प्रतिपक्ष भावना का निश्चित प्रभाव होता है। दशवैकालिक में (३) तीव्र कर्मविपाक का मंदीकरण।
इसका स्पष्ट निर्देश प्राप्त है। उपशम की भावना से क्रोध मृदुता (४) प्रदेश-परिमाण का अल्पीकरण।
से अभिमान, ऋजुता से माया और संतोष से लोभ के भावों को
बदला जा सकता है। आचारांगसूत्र में भी ऐसे निर्देश प्राप्त हैं। (५) असाता वेदनीय कर्म के उपचय का अभाव।
जो पुरुष अलोभ से लोभ को पराजित कर देता है, वह प्राप्त (६) संसार का अल्पीकरण।१३
कामों में निमग्न नहीं होता। . अनुप्रेक्षा चिन्तनात्मक होने से ज्ञानात्मक है। ध्यानात्मक अध्यात्म के क्षेत्र में प्रतिपक्ष भावना का सिद्धान्त अनुभव नहीं है। अनित्य आदि विषयों के चिन्तन में जब चित्त लगा की भूमिका में सम्मत है। जैन-मनोविज्ञान के अनुसार मौलिक रहता है, तब वह अनुप्रेक्षा और जब चित्त उन विषयों में एकाग्र मनोवृत्तियाँ चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । यह मोहनीय हो जाता है, तब वह धर्म्यध्यान कहलाता है। ध्यानशतक में कर्म की औदयिक अवस्था है। प्रत्येक प्राणी में जैसे मोहनीय स्थिर अध्यवसाय को ध्यान एवं अस्थिर अध्यवसाय को चित्त कर्म का औदयिक भाव होता है वैसे ही क्षायोपशमिक भाव भी कहा गया है। और वह चित्त भावना, अनप्रेक्षा अथवा चिंतनात्मक होता है। प्रतिपक्ष की भावना के द्वारा औदयिक भावों को निष्क्रिय रूप होता है।५
पर क्षायोपशमिक भाव को सक्रिय कर दिया जाता है। महर्षि
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