Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार भावपूर्वक संयम की सम्यग, आराधना से जीव सर्वार्थसिद्धि से हैं और न सेठ-सेनापति सुखी हैं। मात्र वीतरागी संयमी साधु ही भी अधिक अनुत्तर सुख को प्राप्त कर सकता है। संसार में जो सुखी हैं। जितना संयमी है। वह उतना ही सच्चे सुख को प्राप्त करता है।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सभी
अहिंसा, संयमपालन से ही सुख में उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होती है। भगवतीसूत्र व्रतों का पालन संयम से ही संभव है। संयम नहीं होने से खानेके आधार से 'ज्ञानसंसार' ग्रंथ में कहा गया है कि एक माह के पीने. चलने-फिरने में हिंसा हो सकती है। संयम नहीं होने से संयम वाला वाणव्यन्तर के सुख में, दो माह के संयम वाला इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिए झूठ बोला जा सकता है। भवनपति के सुख में, तीन माह के संयम वाला असुरकुमार के
संयम नहीं होने से अधिक धन कमाने के लोभ में चोरी का सुख में, चार माह का संयमी ग्रह-नक्षत्रों के देवों के सुख में,
माल भी खरीदा जा सकता है। संयम नहीं होने से परस्त्री से भोग पाँच माह वाला सूर्य-चंद्र के देवों के सुख में, छह माह वाला भोगने की इच्छा भी जाग्रत हो सकती है और संयम नहीं होने से संयमी पहले-दूसरे देवलोक के सुख में यों उत्तरोत्तर बढ़ते हुए इच्छा पर कोई अंकश नहीं रहेगा जिससे अनावश्यक वस्तुओं बारह माह का संयमी अनुत्तर देवों के सुखों का भी उल्लंघन कर
का संग्रह होना असंभव है। अतः धर्मपालन के लिए पहली शर्त देता है। एक वर्ष से अधिक का संयमी सदेह मुक्ति के सुखों का संयम है। शरीर के पोषण का विधान भी संयम के लिए ही है। अनुभव करता है। कहा भी गया है
संयम हेतु देहो, धारिज्जई सो कओ उ तद्भावे। जीवन का क्या है पता, कब तक है कब जाय।
संजममाइनिमित्तं, देह परिपालण?।। मुक्तिनगर पाथेय हित, संयम सुखद उपाय।।
संयम-पालन के लिए ही शरीर धारण करना और उसका बिन संयम मिलता नहीं, कभी मोक्ष का द्वार।
पोषण करना चाहिए, क्योंकि बिना शरीर के संयम का पालन संयम बिन कोई जतन, करे न बेड़ा पार।।
नहीं हो सकता। इस संबंध में एक पौराणिक कथा है। एक बार एक महात्मा के चार भक्तों ने अपने-अपने दुःख दूर करने के लिए चार
ज्ञानी कहते हैं कि संयम से पापी का भी उद्धार हो जाता अलग-अलग वरदान माँगे। पहले ने धन, दूसरे ने रूपवती स्त्री, तीसरे ने पुत्र और चौथे ने यश-कीर्ति का वरदान माँगा। योगी ने दीक्षा-संयम के प्रभाव से, पापी पावन बनता है। चारों को उनकी इच्छानुसार वर दे दिया। कुछ वर्षों बाद चारों ही सेवक जग स्वामी बन जाता, मरख ज्ञानी बनता है। भक्त वापस महात्मा से मिले, तब महात्मा ने पूछा कि अब तो
विश्व में जितनी भी सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक, खाद्य वे सुखी हैं? इस पर पहले ने कहा कि धन तो मिल गया पर
ता मिल गया पर संबंधी, स्वास्थ्य संबंधी तथा प्रदूषण संबंधी समस्याएँ है उन
मी उसकी रक्षा में रात-दिन दुःखी रहता हूँ। दूसरे ने कहा कि
. सबका सरल व उत्तम समाधान संयमवृत्ति को अपनाना है। रूपवती स्त्री तो मिल गयी और उसके भोग से ऐसा रोग लग
ज्यों-ज्यों असंयम बढ़ रहा है, त्यों-त्यों जनसंख्या बढ़ती जा रही गया है कि जीना मुश्किल हो गया है। तीसरे ने कहा कि पुत्र तो है और विश्व में रोग भखमरी. प्रदषण एवं यद्ध आदि बढ़ रहे हैं। अनेक हो गये हैं पर आज्ञाकारी एक भी नहीं। चौथे ने कहा कि जनसंख्या को सीमित करने के लिए अप्राकतिक साधनों के उपयोग यशकीर्ति तो खूब फैल रही है पर ईर्ष्या की अग्नि से जल रहा
के बजाय ब्रह्मचर्य का पालन ही सर्वश्रेष्ठ है। महात्मा गाँधी ने भी हँ। तब महात्मा ने कहा कि सुख बाह्य पदार्थों में नहीं है, सुख तो जनसंख्या पर नियंत्रण के लिए ब्रह्मचर्य पर ही जोर दिया है। आत्मा में ही है, जो संयम-पालन से प्राप्त होता है। इसलिए कहा
जैन-संस्कृति संयम प्रधान संस्कृति है। लोक का सार भी गया है
संयम कहा गया हैनवि सुही देवता देवलोए, नवि सुही पुढवी पइराया। नवि सुही सेठ सेनावइये, एगंत सुही साहु वीयरागी।।
लोगस्सं सारं धम्मो,धस्मं पिय नाण सारियं बिंति।
नाणं संजम- सारं संजमसारं च निव्वाणं।। न तो देवता देवलोक में सुखी हैं, न पृथ्वीपति राजा सुखी
యుదురురురురువారసాదరంగా గురువారందరరసారశాంతరవాత
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