Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - की मीमांसा की गई है। ग्रंथ में लिखा है कि दान, पूजा, शील दान के फल के सम्बन्ध में आचार्य ने बहुत सुन्दर कहा और उपवास भवरूप को भस्म करने के लिए ये चारों ही आग है, जैसे - मेघ से गिरने वाला जल एकरूप होकर भी नीचे के समान है। पूजा का अर्थ है जिनदेव की भक्ति। भाव के आधार को पाकर अनेक रूपों में परिणत हो जाता है, वैसे ही स्थान पर पूजा का प्रयोग आचार्य ने किया है। दाता के कुछ एक ही दाता से मिलने वाला दान विभिन्न - उत्तम, मध्यम और विशेष गणों का भी आचार्य ने अपने ग्रंथ में उल्लेख किया है - जघन्य पात्रों को पाकर विभिन्न फल वाला हो जाता है। अपात्र विनीत हो, भोगों से नि:स्पृह हो, समदर्शी हो, परीषहसही हो, को दिए गए दान के बारे में कहा गया है कि जिस तरह कच्चे प्रियवादी हो, मत्सररहित हो, संघवत्सल हो और सेवापरायण भी घड़े में डाला गया जल अधिक देर तक नहीं टिक पाता और होना चाहिए। दान की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य ने घड़ा भी फूट जाता है, वैसे ही गुणहीन अर्थात् अपात्र को दिया कहा है कि जिस घर में से योगी को भोजन न दिया गया हो। उस गया दान भी निष्फल हो जाता है और लेने वाला नष्ट हो जाता गृहस्थ के भोजन से क्या प्रयोजन? कुबेर की निधि भी उसे मिल है। जाए, तो क्या?
आचार्य ने अपने ग्रंथ में चार प्रकार के दानों का वर्णन योगी की शोभा ध्यान से होती है, तपस्वी की शोभा संयम किया है - अभयदान, अन्नदान, औषधदान एवं शास्त्रदान। से होती है, राजा की शोभा सत्यवचन से होती है और गृहस्थ की वस्तुतः देने योग्य जो वस्तु हैं, वे चार ही होती हैं। अभय को शोभा दान से होती है। जो भोजन करने से पूर्व साधु के आगमन सबसे श्रेष्ठ दान कहा गया है। मंगलपाठ में भी दान की महिमा की प्रतीक्षा करता है, साधु का लाभ न मिलने पर भी वह दान का वर्णन किया गया है - का भागी है।
"भवि भावन भाविये, भावे कीजे दान । दान के चार भेद कहे हैं - अभयदान, अन्नदान, औषधदान
भावे धर्म आराधिये, पावे केवल ज्ञान ॥" एवं ज्ञानदान। अन्नदान को आहारदान भी कहा जाता है और
दान से आज पूरे भारत की सभी तरह की संस्थाएँ जीवित ज्ञान-दान को शास्त्रदान भी कहते हैं। पंचमहाव्रत-साधु को हैं. जिस दिन दान देने की प्रवत्ति बंद हो जाएगी. उस दिन संसार उत्तम पात्र कहा गया है। देशव्रतधारक श्रावक को मध्यम पात्र में कछ नहीं बचेगा। दान भकाल में भी दिया जाता था. वर्तमान कहा है। अविरतसम्यग दृष्टि को जघन्य पात्र कहा गया है। में भी दिया जाता है और भविष्य में भी दिया जाता रहेगा। कबीर
विधिपूर्वक दिया गया थोड़ा दान भी महाफल प्रदान करता ने कहा भी है - है, जिस प्रकार धरती में बोया गया छोटा-सा वट-बीज भी समय चिड़ी चोंच भर ले गयी, नदी न घटियो नीर, पर एक विशाल वृक्ष के रूप में चारों ओर फैल जाता है, जिसकी दान देने से धन न घटे, कह गए दास कबीर । छाया में हजारों प्राणी सुख भोग करते हैं, उसी प्रकार विधि-सहित
दान की महिमा सर्वोपरि है,सभी दानों में अभयदान सर्वोपरि छोटा-सा दान भी महाफल देता है।
जय जिनेन्द्र
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