Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
वाले के अर्थ में। ऋषभ ही रुद्र हैं और परमात्मा भी । ब्राह्मणों के शिव ही श्रमणों के ऋषभ हैं।
ज्ञातव्य है कि जैनागमों में ऋषभदेव को धर्म का आदि प्रवर्तक कहा गया है, तो श्रीमद्भागवत् में ऋषभदेव के अवतार को रहस्य या अभिप्राय के सन्दर्भ में बताया गया है कि उनके आविर्भाव का उद्देश्य वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म का विवेचन करना था। इस सन्दर्भ का मूल रूप इस प्रकार है.
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"इति निशामयन्त्या मेरुदेव्याः पतिमभिधायान्तर्दधे भगवान्। बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त - भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्व मन्थिनां शुक्लया तनुवावततार " । ( ५.४.२० )
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श्रीमद्भागवत् में ऋषभदेव को भगवान् माना गया है। और उनकी प्रार्थना में सादर यह श्लोक कहा गया है
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नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्णः, श्रेयस्यतद्रचनया चिरसुप्रबुद्धेः । लोकस्य यः करुणया भयमात्मलोकमाख्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै ।। ( ५.७.१९ )
अर्थात् निरंतर विषय-भोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध हुए लोगों को, जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश किया और जो स्वयं निरंतर अनुभव होने वाले आत्मस्वरूप की प्राप्ति के कारण सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार है।
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इससे स्पष्ट है कि श्रमण और ब्राह्मण दोनों परम्पराओं में विशुद्धचरित ऋषभदेव का समान आदर था। दोनों परम्पराओं ने उन्हें पूज्य माना है। ऋषभदेव जैनों के आदि तीर्थंकर हैं, तो वैदिकों के लिए साक्षात् विष्णु के अवतार हैं। 'अर्ह' या अर्हत् का एक अर्थ विष्णु भी है (दे. आप्टे का कोश ) । शिवपुराण के अनुसार अट्ठाईस योगावतारों में ऋषभदेव की भी गणना हुई है। श्रीमद्भागवत् के ही अनुसार ऋषभदेव ने पश्चिमी भारत (बृह्मावर्त) में आर्हत धर्म का प्रचार किया था। वे महान् योगेश्वर थे। एक बार इन्द्र ने ईर्ष्यावश उनके राज्य (अजनाभखण्ड) में अवृष्टि की स्थिति उत्पन्न कर दी, किन्तु उन्होंने योगबल से वृष्टि करा दी ( ५.४.४) । उन्होंने अपने शरीर का त्याग योगियों को देहत्याग की विधि सिखाने के लिए ही किया था ) अथैवमखिललोकपालललामोऽपि विलक्षण
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जडवदवधूतवेषभाषाचारितैरविलक्षितभगवत्प्रभावो योगिनां साम्परायविधिमनुशिक्षयन् स्वकलेवरं जिहा
सुरात्मन्यात्मानमसंख्यवहितमनर्थान्तरभावेनान्वीक्षमाण उपरतानुवृत्तिरूपरराम।" तत्रैव ५.६.६)
'श्रीमद्भागवत् के उल्लेखानुसार भगवान् ऋषभदेव का अवतार रजोगुण से लिप्त लोगों को मोक्षमार्ग की शिक्षा देने के लिए ही हुआ था 'अयमवतारो रजसोपप्लुतकैवल्योप
शिक्षणार्थ : (५.६.१२) ।
इस प्रसंग से और फिर भागवत में वर्णित ऋषभदेव की अन्य विशेषताओं से तत्त्वार्थ सूत्र का यह मंगलश्लोक तुलनीय हैमोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ।।
ऋषभदेव ने अपने नाम की सार्थकता के बारे में स्वयं
कहा है
इदं शरीरं मम दुर्विभाव्यं, सत्त्वं हि मे हृदयं यत्र धर्मः ।
पृष्ठे कृतो मे यद धर्म आराद्,
अतो हि मामृषभं प्राहुरार्याः ।। (५.५.१९ )
अर्थात् मेरे इस अवतार - शरीर का रहस्य साधारण जनों लिए बुद्धिगम्य नहीं है। शुद्ध सत्त्व ही मेरा हृदय है और उसी में धर्म की स्थिति है। मैंने अधर्म को बहुत दूर पीछे धकेल दिया है, इसी बलशालिता के कारण सत्पुरुष मुझे ऋषभ पुरुष कहते हैं।
श्रीमद्भागवत् के अनुसार ऋषभदेव आत्मतत्त्व की जिज्ञासा (परामवस्तावदबोधजातो- ५ . ५. ५) तथा अध्यात्म-शास्त्र के अनुशीलन (अध्यात्मयोगेन विविक्तसेवया - ५.५.१२) को सर्वाधिक मूल्य देते थे, किन्तु परवर्तीकाल के आर्हतों ने अवतारवाद और ईश्वरतत्त्व का अवमूल्यन कर दिया। वे अवश्य ही अर्हतों के उपासक थे, आत्मा को ही सर्वश्रेष्ठ मानने वाली अध्यात्मवादी परम्परा को स्वीकारते थे, पर अवतार या ईश्वर को मूल्य नहीं देते थे। इस प्रकार अवतार और ईश्वर को मूल्य न देने पर भी श्रमणों और ब्राह्मणों का आत्मतत्त्व मूलक केन्द्रीय भाव एक ही था।
ऋषभ शब्द की तरह 'वातरशना' का भी उल्लेख ऋग्वेद में आया है -
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