Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन धर्म ने पालन किया था। बुद्ध के दीक्षा लेने के समय तक महावीर और उसकी आकृति हिन्दू-परम्परा के गणेश के समान मानी के निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय का प्रवर्तन नहीं हुआ था। अतः यह निश्चित गई है, जो कि विघ्नहारी देवता हैं। पार्श्वनाथ का विहार-क्षेत्र रूप से कहा जा सकता है कि यह निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय अवश्य ही अमलकप्पा, श्रावस्ती, चम्पा, नागपुर, साकेत, अहिच्छत्र, मथुरा, महावीर के पूर्वज पार्श्वनाथ का रहा होगा।
काम्पिल्य, राजगृह, कौशाम्बी, हस्तिनापुर आदि रहा है। जैनयह सम्भव है कि प्रथम महावीर ने पापित्यों की परम्परा मान्यता के अनुसार इन्होंने सम्मेत शिखर पर्वत पर सौ वर्ष की का अनुसरण कर एक वस्त्र ग्रहण किया हो, किन्त आगे चलकर आयु में परिनिर्वाण प्राप्त किया था। आज भी सम्मेत शिखर आजीवक परम्परा के अनुरूप अचेलता का अनुगमन कर पार्श्वनाथ पहाड़ के नाम से जाना जाता है। पार्श्वनाथ के सोलह लिया हो। उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से महावीर को अचेल धर्म हजार भिक्षु और अड़तीस हजार भिक्षुणियाँ थीं। त्रिषष्टिशलाका
और पापर्यनाथ को सचेलक धर्म का प्रतिपादक कहा गया -पुरुषचरित्र में इनके १० पूर्व भवों का उल्लेख है। यह माना है।२०६ सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती आदि में मिलने वाले जाता है कि महावीर ने पार्श्वनाथ की परम्परा की मान्यताओं को पापित्यों के उल्लेखों से और उनके द्वारा महावीर की परम्परा देश और काल के अनुसार संशोधित कर नये रूप में प्रस्तुत स्वीकार करने सम्बन्धी विवरणों से निर्विवाद रूप से यह सिद्ध किया। प्राचीन जैन-साहित्य को देखने पर यह भी ज्ञात होता है होता है कि पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे, काल्पनिक कि प्रारम्भ में पार्श्वनाथ और महावीर की परम्परा में मतभेद नहीं। पार्श्व एवं उनकी परम्परा की ऐतिहासिकता तथा उनकी रहा, किन्तु आगे चलकर पार्श्वनाथ की परम्परा महावीर की दार्शनिक और धार्मिक मान्यताओं के सन्दर्भ में पंडित सुखलालजी परम्परा में विलीन हो गई। ने अपने ग्रंथ 'चार तीर्थंकर' में, पंडित दलसखभाई ने 'जैन - सत्यप्रकाश में प्रकाशित पार्श्व पर लिखे अपने शोध लेख में पाश्व का अवदान श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने अपने ग्रन्थ 'भगवान् पार्श्व एक समीक्षात्मक भारतीय संस्कृति में श्रमण-धारा का आवश्यक घटक अध्ययन' में और डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'अर्हत तप एवं त्याग को माना गया है और यही इसकी प्रतिष्ठा का पार्श्व और उनकी परम्परा' में पर्याप्त रूप से प्रकाश डाला है। कारण रहा है। पार्श्वनाथ इसी श्रमण-परम्परा के प्रतिपादक हैं। विद्वान् पाठकगण उसे वहाँ देख सकते हैं।
भारतीय संस्कृति को पार्श्व के अवदान की चर्चा करते हुए डॉ. । यद्यपि यह आश्चर्यजनक है कि हिन्द और बौद्ध-साहित्य सागरमल जैन लिखते हैं कि यद्यपि श्रमणों ने वैदिकों के हिंसक में कहीं भी पार्श्व के नाम का उल्लेख नहीं है, जबकि प्राचीन यज्ञों का विरोध किया ही, साथ ही उनकी कर्मकाण्डीय प्रथा का जैन-आगमसाहित्य के अनेक ग्रंथ यथा-ऋषिभाषित, सत्रकतांग, भी बहिष्कार किया था, फिर भी श्रमण-धारा में कर्मकाण्ड भगवती, उत्तराध्ययन, कल्पसत्र आदि में पार्श्व और उनके प्रविष्ट कर ही गया था, क्योंकि उनके तप और त्याग विवेक अनुयायियों के उल्लेख मिलते हैं। ऋषिभाषित तो ईसा पूर्व प्रधान न रहकर रूढ़िवादी कर्म-काण्डीय प्रथा के अनुरूप बन तीसरी शताब्दी की रचना है। उसमें इनका उल्लेख इनकी गए थे। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पार्श्वनाथ के युग में श्रमण ऐतिहासिकता को प्रमाणित करता है। बौद्ध पालि-त्रिपिटक- -धारान्तर्गत तप और त्याग के साथ कर्म-काण्ड पूरी तरह जड साहित्य में भी जिन चातर्यामों का उल्लेख मिलता है. उनका गया था और तप देह-दण्डन और बाह्याडम्बर मात्र रह गया। सम्बन्ध पार्श्वनाथ की परम्परा से है। पार्श्वनाथ ने विशेष रूप कठोरतम देह-दण्डन द्वारा लोक में प्रतिष्ठा पाना श्रमणों और से देह-दण्डन की प्रक्रिया की आलोचना की तथा जान सम्बन्धी संन्यासियों का एकमात्र उद्देश्य बन गया था। सम्भवतः उपनिषदों और विवेकयुक्त तप को ही श्रेष्ठ बताया।
की ज्ञानमार्गी धारा अभी पूर्णतया विकसित नहीं हो पाई थी, जैन-परम्परा में पुरुषादानीय के रूप में इनका बड़े आदर
तदर्थ पार्श्वनाथ ने देह-दण्डन और कर्मकाण्ड दोनों का विरोध के साथ उल्लेख पाया जाता है। जैन-परम्परा में पार्श्व को महावीर
किया। कमठ तापस के देह-दंडन की आलोचना करते हुए
उन्होंने कहा - 'तुम्हारी इस साधना में आध्यात्मिक आनन्दानुभूति से भी अधिक महत्त्व प्राप्त है। उन्हें विघ्न-हरण करने वाला बतलाया गया है। उनके यक्ष का नाम पार्श्व बतलाया गया है
कहाँ हैं ? इसमें न तो स्वहित ही है और न परहित अथवा
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