Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म उल्लेख मिलते हैं।५४ श्रीमद्भागवत और परवर्ती पुराणों में से दर्शन करते हैं और उनकी ज्ञानज्योति मात्र ज्ञानरूप ही है।५६ अधिकांश में ऋषभदेव का वर्णन उपलब्ध है, जो जैन-परम्परा ऋग्वेद में एक अन्य स्थल पर केशी और ऋषभ का एक साथ से बहुत साम्य रखता है।
वर्णन हुआ है।५७ श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव के केशधारी अवधूत ऋग्वेद के १०वें मण्डल के सूत्र १३६/२ में वातरशना
के रूप में परिभ्रमण करने का उल्लेख मिलता है। जैनमूर्तिकला शब्द का प्रयोग हुआ है।५५ व्युत्पत्ति की दृष्टि से वातरशन शब्द
में भी ऋषभदेव के वक्रकेशों की परम्परा अत्यन्त प्राचीनकाल के दो अर्थ हो सकते हैं - (१) वात+अशन अर्थात वायु ही
से पायी जाती है। तीर्थंकरों में मात्र ऋषभदेव की मूर्ति के सिर
पर ही कुटिल (वक्र) केश देखने को मिलते हैं, जो कि उनका जिनका भोजन है, उन्हें वातरशन कहा जा सकता है। (२)
एक लक्षण माना जाता है। पद्मपुराण'९ एवं हरिवंशपुराणप° में वात+रशन रशन वेष्ठन परिचायक वस्तु ही जिनका वस्त्र है इस
भी उनकी लंबी जटाओं के उल्लेख पाए जाते हैं। अत: उपर्युक्त दृष्टि से यह नग्न मुनि का परिचायक हो सकता है। तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार वातरशना का अर्थ नग्न होता है। जैनाचार्य
साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि ऋषभदेव का ही जिनसेन ने वातरशना का अर्थ दिगम्बर किया है और उसे ।
दूसरा नाम 'केशी' रहा होगा। ऋषभदेव का विशेषण बताया है। सायण ने वातरशना का अर्थ
पुरातात्त्विक स्त्रोतों से भी ऋषभदेव के बारे में सूचनाएँ वातरशन का पत्र किया है किन्तु उसका अर्थ वातरशन के प्राप्त हुई हैं। डॉ. राखलदास बनर्जी द्वारा सिन्धुघाटी की सभ्यता अनुयायी करना अधिक उचित है, क्योंकि श्रीमदभागवत में भी की खोज में प्राप्त सील (मुहर) सं.४४९ पर चित्रलिपि में कछ यह कहा गया है कि ऋषभदेव ने वातरशना श्रमणों के धर्म का लिखा हुआ है। इसे श्री प्राणनाथ विद्यालंकार ने जिनेश्वर: 'जिनउपदेश दिया । जैन पराण श्रीमदभागवत में वातरशना को जो इ-इ-सरः' पढ़ा है। रामबहादुर चन्दा का कहना है कि सिन्धु ऋषभदेव के साथ जोडने का प्रयत्न किया गया है. समचित तो घाटी से प्राप्त मुहरों में एक मूर्ति मथुरा के ऋषभदेव की प्रतीत होता ही है. साथ ही यह भी सचित करता है कि ऋग्वैदिक खड्गासन मूर्ति के समान त्याग और वैराग्य के भाव प्रदर्शित काल में ऋषभ की परम्परा प्रचलित थी।
करती है। इस सील में जो मूर्ति उत्कीर्ण है उसमें वैराग्य भाव तो ऋग्वेद में 'शिश्नदेवा' शब्द आया है। 'शिश्नदेव' के ऋग्वेद
स्पष्ट है ही, साथ ही साथ उसके नीचे के भाग में ऋषभदेव के
प्रतीक बैल का सदभाव भी है।५१ में दो उल्लेख हैं - प्रथम (७/२१/५) में तो कहा गया है कि वे हमारे यज्ञ में विघ्न न डालें और दूसरे (१०/९९/३) में इन्द्र द्वारा डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने सिन्धु-सभ्यता का अध्ययन शिश्नदेवों को मारकर शतद्वारों वाले दुर्ग की निधि पर कब्जा करते हुए लिखा कि फलक १२ और ११८ आकृति ७ (मार्शल करने का उल्लेख है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि कृत मोहनजोदड़ो) कार्यात्सर्ग मुद्रा में खड्गासन में खड़े हुए शिश्नदेव (नग्नदेव) के पूजक वैदिक परम्परा के विरोधी और देवताओं को सूचित करती है। यह मुद्रा जैन तीर्थंकरों की मर्तियों आर्थिक दृष्टि से संपन्न थे। शिश्नदेवा के दो अर्थ हो सकते हैं। से विशेष रूप से मिलती है। जैसे - मथुरा से प्राप्त तीर्थंकर इसका एक अर्थ है शिश्न को देवता मानने वाले, दसरा शिश्नयक्त ऋषभ की मूर्ति। मुहर संख्या एफ.जी.एच. फलक दो पर अंकित अर्थात् नग्न देवता को पूजने वाले। इन दोनों अर्थों में से भले ही देवमूर्ति एक बैल ही बना है। संभव है कि यह ऋषभ का प्रतीक किसी भी अर्थ को ग्रहण करें किन्त इससे इतना तो स्पष्ट है कि रूप हो। यदि ऐसा हो, तो शैव-धर्म की तरह जैन धर्म का मल ऋग्वेद के काल में एक परम्परा थी, जो नग्न देवताओं की पजा भी ताम्रयुगीन सिन्धुसभ्यता तक चला जाता है।६२ करती थी और यह भी सत्य है कि ऋषभ की परम्परा नग्न डॉ. विंसेन्ट ए. स्मिथ का कहना है कि मथुरा-संबंधी श्रमणों की परम्परा थी।
खोजों से यह फलित होता है कि जैन-धर्म के तीर्थंकरों की ऋग्वेद में केशी की स्तति किए जाने का उल्लेख मिलता अवधारणा ई. सन् के पूर्व में विद्यमान थी। ऋषभादि २४ तीर्थंकरों है। केशी साधनायक्त कहे गए हैं तथा अग्नि, जल पथ्वी और की मान्यता सुदूर प्राचीनकाल में पूर्णतया प्रचलित थी।६३ इस स्वर्ग को धारण करते हैं। साथ ही सम्पूर्ण विश्व के तत्त्वों का प्रकार ऋषभदेव की प्राचीनता इतिहास के साहित्यिक एवं
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