Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म दिवाकरसूरि ने किस देव की आराधना करके श्रीपार्श्वनाथ भगवान् सूरि ने श्रीभक्तामरस्तोत्र के दसवें पद्य में इसी आशय को प्रकाशित की प्रतिमा को प्रकट किया था? श्री मानतुंगसूरीश्वर ने किसकी किया हैस्तुति करके शरीर की (४४) चवालीस बेड़ियों को तोड़ा था? नात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ, भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः । श्रीहीरविजय सूरि ने किसके प्रभाव से अकबर को प्रभावित तुतया भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ।।१०।। किया था ? बालक नागकेतु ने कब धरणेन्द्र का स्मरण किया
हे जगद्भूषण, हे प्राणियों के स्वामी भगवान् ? आपके था? बालक अमर कुमार ने किसका स्मरण कर अपने आपको सत्य और महान गणों की स्तति करने वाले मनुष्य आपके ही मृत्यु के मुख से बचाया था ? श्रष्ठिप्रवर सुदर्शन ने शूली पर समान हो जाते हैं। इसमें कछ भी आश्चर्य नहीं है, क्योंकि यदि किसका स्मरण किया था ? सती सुभद्रा ने किसका स्मरण कोई स्वामी अपने उपासक को अपने समान नहीं बना लेता तो करके चम्पा के द्वार खोले थे?
उसके स्वामीपन से क्या लाभ? अर्थात् कुछ नहीं। इन सब प्रश्रों का उत्तर मात्र इतना ही है कि सबने किसी हाँ तो अन्य देवी-देवता सकामी सक्रोधी लोभी एवं रागदेवी अथवा देव की आराधना नहीं की थी, अपितु उन्होंने श्रीवीतराग देष से यक्त हैं और वीतराग इनसे रहित। अन्य देवी-देवताओं का अवलम्बन लेकर श्रीनवकार मंत्र का आराधन किया अथवा की उपासना से हमको वही प्राप्त होगा. जो उनमें है यानी कामअन्य प्रकार से वीतराग की आराधना की थी। हमारे पूर्वाचार्यों ने क्रोध, लोभ, राग-द्वेषादि ही प्राप्त होंगे और वीतराग की उपासना देवी-देवताओं के बल पर शासन प्रभावना नहीं की, किन्तु
से उपासक काम-क्रोध, माना-माया और राग द्वेषादि से दूर पूर्वाचार्य भगवन्तों ने अपनी विद्वत्ता एवं चारित्रिक बल के द्वारा
क द्वारा होकर वीतरागत्व को प्राप्त करके स्वयं भी वीतराग बन जाएगा। ही शासन-प्रभावना की है। यदि आज भी श्रद्धापूर्वक वीतराग
मुनिप्रवर श्रीयशोविजयी ने भी कहा है - भगवान् का अवलम्बन लेकर श्रीनमस्कार मंत्र की आराधना
इलिका भ्रमरीध्यानात, भ्रमरीत्वं यथा श्रुते । की जाए, तो अवश्य ही इच्छित की प्राप्ति में किसी प्रकार का
तथा ध्यायन् परमात्मानं, परमात्मत्वमाप्नुयात् ।। अवरोध नहीं आ सकता।
भँवरी का निरंतर ध्यान करने से जिस प्रकार इलिकाएँ प्रश्र - आपने अन्य प्रत्यक्ष देवी-देवताओं की आराधना
भ्रमरीत्व को प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार परमात्मा (वीतराग) का का निषेध कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग की ही उपासना को योग्य
निरंतर ध्यान करने से आत्मा भी परमात्मा बन जाती है। कहा, किन्तु वीतराग देव तो कृतकृत्य हो गए हैं। वे न तो भक्त अनुराग करते हैं और न शत्रु से द्वेष। ऐसे वीतराग की उपासना से
वीतराग की सम्यक् उपासना करने से जब हमारी आत्मा हमको क्या लाभ प्राप्त होने की आशा है? जो हम उनकी वीतरागत्व को भी प्राप्त कर लेती है, तो अन्य सामान्य वस्तुओं उपासना करें?
का प्राप्त होना कोई आश्चर्य का कारण नहीं है। अतः सब
प्रपंचों का त्याग कर श्रीवीतराग की उपासना के बीजभूत उत्तर - वीतराग अवश्य ही राग-द्वेषजन्य प्रपंचों से पर
सकलागम-रहस्यभूत महामंत्राधिराज श्रीनमस्कार महामंत्र का हैं। तभी तो उनका नाम वीतराग है। वे न तो कुछ देते हैं और न
निष्काम भक्ति से स्मरण करना ही हमारे लिए लाभप्रद है। भक्त से राग और शत्रु से द्वेष ही करते हैं, किन्तु श्रीवीतराग की उपासना करने से हम उपासकों को वीतरागत्व की प्राप्ति होती अन्त में, निबंध में यदि कुछ भी अयुक्त लिखा गया हो, है. क्योंकि जैसे उपास्य की उपासना की जाती है. वैसा ही फल तो उसके लिए त्रिकरण-त्रियोग-से मिथ्या दुष्कृत्य की चाहना उपासक को प्राप्त होता है। उपास्य यदि क्रोध, मान, माया और करते हुए वाचकों से निवेदन है कि अपने हाथों अपनी शक्ति लोभ से युक्त हो और उपासक उससे अपनी पर्यपासना के और समय का वृथा साधनाओं में व्यय न करते हए सत्य की बदले में वीतरागत्व की प्राप्ति की आशा रखे. तो वह वथा है। निष्पक्ष भाव से गवेषणा करके तथा उसको सत्य मान कर मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है कि उपास्य जैसा हो. उसकी उपासना आत्मसाधना के मार्ग में आगे बढ़ें यही आशा है। इत्यलम् विस्तरेण।
से उपासक भी वैसा ही हो जाना चाहिए। आचार्यप्रवर श्रीमानतुंग aro
o rnananandamaina ooooooooooరువారం సాగరం
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