Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
View full book text
________________
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन जन्म की अपेक्षा से ३० वर्ष की वय और मुनि-जीवन की अपेक्षा किया गया है उनमें मात्रक और चूलपट्टक ये दो उपधि जिनकल्पी से १९ वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाले होते हैं। ज्ञान की दृष्टि से नव-दस नहीं रखते हैं। पूर्व-ज्ञान के धारी होते हैं। वे तीनों शुभ लेश्याओं से युक्त होते हैं यापनीयों की दूसरी विशेषता यह है कि वे श्वेताम्बरों के समान और वज्रऋषभ-नाराच-संहनन के धारक होते हैं।
जिनकल्प का विच्छेद नहीं मानते। उनके अनुसार समर्थ साधक सभी अपराजित के अतिरिक्त जिनकल्प और स्थाविरकल्प का कालों में जिनकल्प को धारण कर सकते हैं, जबकि श्वेताम्बरों के अनुसार उल्लेख यापनीय आचार्य शाकटायन के स्त्रीमुक्तिप्रकरण में भी है। जिनकल्पी केवल तीर्थङ्कर की उपस्थिति में ही होते हैं। यद्यपि यापनीयों इससे यह प्रतीत होता है कि जिनकल्प की अवधारणा श्वेताम्बर एवं की इस मान्यता में उनकी ही व्याख्यानुसार एक अन्तर्विरोध आता यापनीय दोनों परम्पराओं में लगभग समान ही थी। मुख्य अन्तर यह है, क्योंकि उन्होंने अपनी जिनकल्पी की व्याख्या में यह माना है कि है कि यापनीय-परम्परा में जिनकल्पी के द्वारा वस्त्र-ग्रहण का कोई जिनकल्पी नौ-दस पूर्वधारी और प्रथम संहनन के धारक होते हैं। चूंकि उल्लेख नहीं है, क्योंकि उसमें मुनि के लिये वस्त्र-पात्र की स्वीकृति उनके अनुसार भी वर्तमान में पूर्वो का ज्ञान और प्रथम संहनका केवल अपवाद-मार्ग में है, उत्सर्ग-मार्ग में नहीं और जिनकल्पी उत्सर्ग- (वज्र-ऋषभ- नाराच-संहनन) का अभाव है, अत: जिनकल्प सर्वकालों मार्ग का अनुसारण करता है। अत: यापनीय-परम्परा के अनुसार वह में कैसे सम्भव होगा? इन दो-तीन बातों को छोड़कर यापनीय और किसी भी स्थिति में वस्त्र-पात्र नहीं रख सकता। वह अचेल ही रहता श्वेताम्बर परम्परा में जिनकल्प के सम्बन्ध में विशेष अन्तर नहीं है। है और पाणि-पात्री होता है। जबकि श्वेताम्बर-परम्परा के मान्य ग्रन्थों विशेष जानकारी के लिये भगवती-आराधना की टीका और बृहत्कल्पशष्य के अनुसार जिनकल्पी अचेल भी होता है और सचेल भी। वे पाणि-पात्री के तत्सम्बन्धी विवरणों को देखा जा सकता है। भी होते हैं और सपात्र भी होते हैं। ओघनियुक्ति (गाथा ७८-७९) ज्ञातव्य है कि दिगम्बर-ग्रन्थ गोम्मटसार और यापनीय -ग्रन्थ में उपधि (सामग्री) के आधार पर जिनकल्प के भी अनेक भेद किये भगवतीआराधना की टीका में जिनकल्प को लेकर एक महत्त्वपूर्ण अन्तर
परिलक्षित होता है, वह यह कि जहाँ गोम्मटसार में जिनकल्पी मुनि इसी प्रकार निशीथभाष्य में भी जिनकल्पी की उपधि को लेकर को मात्र सामायिक चारित्र माना गया है, वहाँ भगवतीआराधना में उनमें विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। उसमें सर्वप्रथम यह बताया गया । सामायिक और छेदोपस्थापनीय ऐसे दो चारित्र माने गए हैं। वस्तुतः है कि पात्र की अपेक्षा से जिनकल्पी दो प्रकार के होते हैं-पाणिपात्र यह अन्तर इसलिये आया कि जब दिगम्बर परम्परा में छेदोपस्थापनीय अर्थात् बिना पात्र वाले और पात्रधारी। इसी प्रकार वस्त्र की अपेक्षा चारित्र का अर्थ महाव्रतारोपण से भिन्न होकर प्रायश्चित रूप पूर्व-दीक्षा से भी उसमें जिनकल्पियों के दो प्रकार बताए गए हैं-अचेलक और पर्याय के छेद के अर्थ में लिया गया, तो जिनकल्पी में प्रायश्चित्त रूप सचेलक। पुन: इनकी उपधि की चर्चा करते हुए कहा गया है कि छेदोपस्थापनीय चारित्र का निषेध मानना आवश्यक हो गया, क्योंकि अचेलक और पाणिपात्रभोजी जिनकल्पी होते हैं वे रजोहरण और जिनकल्पी की साधना निरपवाद होती है। हमें जिनकल्प और स्थविरकल्प मुखवस्त्रिका ये दो उपकरण रखते हैं। जो सपात्र और सवस्त्र होते हैं का उल्लेख प्राय: श्वेताम्बर एवं यापनीय-परम्परा में ही देखने को मिला उनकी उपधि की संख्या कम से कम तीन और अधिक से अधिक है। दिगम्बर-परम्परा में यापनीय-प्रभावित ग्रन्थों को छोड़कर प्राय: इस बारह होती है। स्थाविरकल्पी की जिन चौदह उपधियों का उल्लेख चर्चा का अभाव ही है।
सन्दर्भ
सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, सूरत, १९३५. १. णिच्चेलपाणिपत्तं उवइ8 परमजिण वरिदेहि।
(ब) सव्वेऽवि एगदूसेण, निग्गया जिनवरा चउव्वीसं। एक्को वि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे।। - सूत्रप्राभृत,१०। -आवश्यकनियुक्ति २२७, हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, लाखाबावल, एगयाऽ चेलए होइ सचेले यावि एगया। --- उत्तराध्ययन, २/१३। शांतिपुरी (सौराष्ट्र), १९८९। उस्सग्गियलिंगकदस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव।
६. (अ) आवश्यकनियुक्ति, गाथा १२५८। अववादियलिंगस्स वि पसत्थमुवसग्गियं लिंग।।
(ब) वही, १२६०।
- भगवतीआराधना, ७६। ७. अचेलगो य जो धम्मो जो इमोसंतरुत्तरो। ४. णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो।
देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा।। णग्गो विमोक्ख मग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे।।
-उत्तराध्यययन, २३/२९ - सूत्रप्राभृत, २३। ८. वही, २३/२४। (अ) से बेमि जे य अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आगमेस्सा अरहंता ९. मुनयो वातरशना पिशङ्गा वसते मला:। भगवंतो जे य पव्वयंति जे उन पव्वइस्संति सव्वे ते सोवही धम्मो वातस्यानु धाजिम यति यद्देवासो अविक्षत।। देसिअव्वोत्ति कट्ट तित्थधम्मत्थाए एसाएणुधम्मिग ति एवं देवदूसमायाए
- ऋग्वेद, १०/१३६/२। पव्वइंसु वा पव्वयंति वा पव्वइसंति वा।
१०. ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचाएँ : एक अध्ययन, डॉ० - आचारांग १/९/१-१ (शीलांक टीका), भाग, पृ० २७३, सागरमल जैन, संधान, अंक ७, राष्ट्रीय मानव संस्कृति शोध Poironirombrarianidnidentionsansorbonidmirabad१०४]nirbroard-irowondiwoodrowoninionorarioritonironiorar
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org