Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - जिन का आदर्श मार्ग है, अत: मुनि को अचेल या नग्न ही रहना गृहस्थ नहो। यद्यपि यापनीय और दिगम्बर दोनो ही अचेलकत्व के चाहिये।
समर्थक हैं, फिर भी वस्त्र के सम्बन्ध में यापनीयों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत ३. यापनीय आपवादिक स्थितियों में ही मुनि के लिये वस्त्र की। उदार एवं यर्थाथवादी रहा है। आपवादिक स्थिति में वस्त्र-ग्रहण, सचेल ग्राह्यता को स्वीकार करते थे, उनकी दृष्टि में ये आपवादिक स्थितियाँ की मुक्ति की सम्भावना, सचेल स्त्री और पुरुष दोनों में श्रमणत्व या निम्नलिखित थीं
मुनित्व का सद्भाव-उन्हें अचेलता के प्रश्न पर दिगम्बर-परम्परा से (क) राज-परिवार आदि अतिकुलीन घराने के व्यक्ति जन-साधारण भिन्न करता है, जबकि आगमों में वस्त्र-पात्र के उल्लेख मात्र आपवादिक के समक्ष नग्नता छिपाने के लिये वस्त्र रख सकते हैं।
स्थिति के सूचक हैं और जिनकल्प का विच्छेद नहीं हैं, यह बात उन्हें (ख) इसी प्रकार वे व्यक्ति भी जो अधिक लज्जाशील हैं अपनी श्वेताम्बरों से अलग करती है। नग्नता को छिपाने के लिये वस्त्र रख सकते हैं।
(ग) वे नवयुवक मुनि जो अभी अपनी काम-वासना को पूर्णत: जिनकल्प एवं स्थविरकल्प विजित नहीं कर पाये हैं और जिन्हें लिंगोत्तेजना आदि के कारण निर्ग्रन्थ अचेलकत्व एवं सचेलकत्व सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसंग में संघ में और जनसाधारण में प्रवाद का पात्र बनना पड़े, अपवाद रूप जिनकल्प और स्थाविरकल्प की चर्चा भी अप्रासंगिक नहीं होगी। श्वेताम्बरमें वस्त्र रख सकते हैं।
मान्य आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में जिनकल्प और स्थविरकल्प (घ) वे व्यक्ति जिनके लिंग और अण्डकोष विद्रप हैं, वे संलेखना। की जो चर्चा मिलती है, उससे यह फलित होता है कि प्रारम्भ में के अवसर को छोड़कर यावज्जीवन वस्त्रधारण करके ही रहें। अचेलता अर्थात् नग्नता को जिनकल्प का प्रमुख लक्षण माना गया
(ङ) वे व्यक्ति जो शीतादि परीषह-सहन करने में सर्वथा असमर्थ था, किन्तु कालान्तर में जिनकल्प शब्द की व्याख्या में क्रमश: परिवर्तन हैं, अपवाद रूप में वस्त्र रख सकते हैं।
हुआ है। जिनकल्पी की कम से कम दो उपधि (मुखवस्त्रिका और (च) वे मुनि जो अर्श, भगन्दर आदि की व्याधि से ग्रस्त हों, रजोहरण) मानी गई किन्तु ओघनियुक्ति के लिये जिनकल्प शब्द का बीमारी की स्थिति में वस्त्र रख सकते हैं।
सामान्य अर्थ तो जिन के अनुसार आचरण करना है। जिनकल्प की ४. जहाँ तक साध्वियों का प्रश्न था यापनीय संघ में स्पष्ट रूप बारह उपधियों का भी उललेख है। कालान्तर में श्वेताम्बर आचार्यों से उन्हें वस्त्र रखने की अनुज्ञा थी। यद्यपि साध्वियाँ भी एकान्त में ने उन साधुओं को जिनकल्पी कहा जो गच्छ का परित्याग करके एकाकी संलेखना के समय जिन-मुद्रा अर्थात् अचेलता धारण कर सकती थीं। विहार करते थे तथा उत्सर्ग-मार्ग के ही अनुगामी होते थे। वस्तुतः
इस प्रकार यापनीयों का आदर्श अचेलकत्व ही रहा, किन्तु अपवाद- जब श्वेताम्बर-परम्परा में अचेलता का पोषण किया जाने लगा तो जिनकल्प मार्ग में उन्होंने वस्त्र-पात्र की ग्राह्यता भी स्वीकार की। वे यह मानते की परिभाषा में भी अन्तर हुआ। निशीथचूर्णि में जिनकल्प और हैं कि कषायत्याग और रागात्मकता को समाप्त करने के लिये सम्पूर्ण स्थविरकल्प की परिभाषा देते हुए कहा है कि जिनकल्प में मात्र उत्सर्ग परिग्रह का त्याग, जिसमें वस्त्र-त्याग भी समाहित है, आवश्यक है, मार्ग का ही अनुसरण किया जाता है। अत: उसमें कल्पप्रतिसेवना किन्तु वे दिगम्बर-परम्परा के समान एकान्त रूप से यह घोषणा नहीं और दर्पप्रतिसेवना दोनों का अर्थात् किसी भी प्रकार के अपवाद के करते हैं कि वस्त्रधारी चाहे वह तीर्थङ्कर ही क्यों नहीं हो, मुक्त नहीं । अवलम्बन का ही निषेध है जबकि स्थविरकल्प में उत्सर्ग और अपवाद हो सकता। वे सवस्त्र में भी आध्यात्मिक विशुद्धि और मुक्ति की दोनों ही मार्ग स्वीकार किये गए हैं। यद्यपि अपवाद-मार्ग में भी मात्र भजनीयता अर्थात् सम्भावना को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार वे कल्पप्रतिसेवना को ही मान्य किया गया है। दर्पप्रतिसेवना को किसी अचेलकत्व सम्बन्धी मान्यता के सन्दर्भ में दिगम्बर-परम्परा के निकट भी स्थिति में मान्य नहीं किया गया है। खड़े होकर भी अपना भिन्न मत रखते हैं। वे अचेलकत्व के आदर्श श्वेताम्बर-परम्परा में मान्य आगमों में प्रारम्भ में तो भगवान् महावीर को स्वीकार करके भी सवस्त्र मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार करते के समान नग्नता को ग्रहण कर, कर-पात्र में भोजन ग्रहण करते हुए हैं। पुन: मुनि के लिये अचेलकत्व का पुरजोर समर्थन करके भी वे अपवादरहित जो मुनिधर्म की कठिन साधना की जाती है, उसे ही यह नहीं कहते हैं कि जो आपवादिक स्थिति में वस्त्र धारण कर रहा जिनकल्प कहा गया है किन्तु कालान्तर में इस परिभाषा में परिवर्तन हुआ। है, वह मुनि नहीं है। जहाँ हमारी वर्तमान दिगम्बर-परम्परा मात्र लँगोटधारी यापनीय-परम्परा में जिनकल्प का उल्लेख हमें भगवतीआराधना ऐलक, एक चेलक या दो वस्त्रधारी, क्षुल्लक को मुनि न मानकर उत्कृष्ट और उसकी विजयोदया टीका में मिलता है। उसमें कहा गया है कि श्रावक ही मानती है, वहाँ यापनीय-परम्परा ऐसे व्यक्तियों की गणना "जो राग-द्वेष और मोह को जीत चुके हैं, उपसर्ग को सहन करने मुनिवर्ग के अन्तर्गत ही करती है। अपराजित आचारांग का एक सन्दर्भ में समर्थ हैं, जिन के समान एकाकी विहार करते हैं, वे जिनकल्पी देकर, जो वर्तमान आचारांग में नहीं पाया जाता है, कहते हैं कि ऐसे कहलाते हैं" क्षेत्र आदि की अपेक्षा से विवेचन करते हुए उसमें आगे व्यक्ति नो-सर्वश्रमणागत हैं। तात्पर्य यह है कि सवस्त्र मुनि अंशत: कहा गया है कि जिनकल्पी सभी कर्मभूमियों और सभी कालों में होते श्रमणभाव को प्राप्त हैं। इस प्रकार यापनीय आपवादिक स्थितियों में हैं। इसी प्रकार चारित्र की दृष्टि से वे सामायिक और छेदोपस्थापनीय परिस्थितिवश वस्त्र-ग्रहण करने वाले श्रमणों को श्रमण ही मानते हैं, चारित्र वाले होते हैं। वे सभी तीर्थङ्करों के तीर्थ में पाए जाते हैं और
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