Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - से सर्वथा परे रहने वाले। उनके लिए यदि किसी ने कुछ भी और लोभ राग-द्वेषादि आभ्यन्तर शत्रुओं को परास्त करने के बनाया, तो उसका त्याग करने वाले, चित्त से भी उसकी चाहना कार्य में लगे, भूमंडल पर विचरण कर संसारी जीवों को सन्मार्गारूढ़ नहीं करने वाले, मधुकरी-वृत्ति से भिक्षा ग्रहण करने वाले, छोटी- कर मोक्षनगर जाने के लिए धर्म रूप मार्ग का पाथेय देने वाले, बड़ी सब स्त्रियों को माँ-बहन समझने वाले, ब्रह्मचर्यव्रत के बाधक पापाश्रमों का त्याग करने वाले, अंगीकृत महाव्रतों का समस्त स्थानों का त्याग करने वाले। बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों का निर्दोषतापूर्वक पालन करने वाले मुनिराज की आदरणीय एवं त्याग करने वाले मुनिराज को साधु अथवा श्रमण कहते हैं। प्रशंसनीय साधुवृत्ति को नमस्कार करते हुए श्रीमद् मुनिसुन्दर श्रीनमस्कारमंत्र के पाँचवें पद पर ऐसी अनुमोदनीय - वन्दनीय सूरीश्वरजी महाराज ने श्री आध्यात्म-कल्पद्रुम में लिखा है - साधुता के धारक बाईस परीषहों को जीतने वाले तथा शास्त्रों के ये तीर्णा भववारिधि मनिवरास्तेभ्यो नमस्कर्महे । अर्थों के चिंतन-मनन व अध्ययन-अध्यापन में जीवन-यापन येषां नो विषयेषु गृघ्यति मनो नो वा कषायैः युतम् ।। करने वाले मुनिराज को नमस्कार किया गया है। अन्तिम श्रुतकेवली राग-द्वेषविमुकप्रशान्तकलुषं साम्याप्तशर्माद्वयं । भगवान् श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यकनियुक्ति में लिखा है - नित्यं खेलति चात्मसंयमगुणा क्रीडे भजद्भावना ।।१।। निव्वाण साहए जोगे, जम्हा साहन्ति साहुणो ।
जिन महामुनिवरों का मन इन्द्रियों के विषयों में आसक्त समा य सव्व भूयेसु, तम्हा वे भाव साहुणो ।।
नहीं होता, कषायों से व्याप्त नहीं होता, जो राग-द्वेष से मुक्त निर्वाण-साधक योगों की क्रियाओं को जो साधते हैं और
रहते हैं, पाप-कर्मों (व्यापारों) का त्याग किया है जिन्होंने। समता
द्वारा अखिलानन्द प्राप्त किया है, जिन्होंने और जिनका मन सब प्राणियों पर समभाव धारण करते हैं, वे भावसाधु हैं।१३ ।
आत्मसंयम रूप उद्यान में खेलता है। संसार से तिर जाने वाले दशाश्रुतस्कन्धसूत्र में साधु का व्युत्पत्यर्थ तीन प्रकार से ऐसे मुनिराजों को हम नमस्कार करते हैं। श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी किया गया है -
महाराज भी श्रीनवपद-पूजा में लिखते हैं - "साधयति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधुः"
संसार छंडी द्दढ मुक्ति मंडी, कपक्ष मोडी भव पास तोडी। "समतां च सर्वभूते ध्यायतीति निरुक्तन्यायात् साधुः" निग्गंथ भावे जसु चित्त आत्थि, णमो भवि ते साहु जणत्थि ।।१।। , "सहायको वा संयमकारिणं साधयतीति साधुः"
जे साहगा मुक्ख पहे दमीणं, णमो णमो हो भविते मुणिणं । जो ज्ञान, दर्शन इत्यादि शक्तियों से मोक्ष की साधना
मोहे नही जेह पडंति धीरा, मुणिण मज्झे गुणवंत वीरा ।।२।। करते हैं या सब प्राणियों के विषय में समता का चिंतन करते हैं जैसा कि ऊपर लिखा जा चका है कि नमस्कार-मंत्र में दो अथवा संयम पालने वाले के सहायक होते हैं, वे साधु हैं। विभाग हैं, नमस्कार और नमस्कार-चूलिका। 'नमो लोए सव्व
साहूणं' यहाँ तक के पदों से पञ्चपरमेष्ठी को अलग-अलग ऐसी अनुमोदनीय एवं स्तुत्य साधुता के धारक मुनिवरों
नमस्कार किया गया है। "एसो पञ्च (पंच) नमुक्कारो सव्व के सत्ताईस गुण होते हैं, जो इस प्रकार हैं - सर्वतः प्राणातिपात
पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं" यह विरमणादि पाँच महाव्रत और रात्रिभोजन-विरमण व्रत ६,
चूलिका नमस्कार फल दर्शक है। जो नमस्कार-मंत्र के आदि के पृथ्वीकायादि षट्काय के संरक्षण ६, इन्द्रियनिग्रह ५, भावविशुद्धि
पाँच पदों के साथ नित्य स्मरणीय है। कुछ लोग कहते हैं कि १, कषायनिग्रह ४, अकुशल मन, वचन और काया का निरोध
चूलिका नित्य पठनीय नहीं, अपितु जानने योग्य है, परन्तु उनका ३, परीषहों का सहन १ और उपसर्गों में समता १ ये २७ गुण
समता १ य २७ गुण यह कथन तत्थ्यांशहीन है। शास्त्राकारों की आज्ञा है कि - अथवा बाह्याभ्यन्तर तप १२, निर्दोष आहार-ग्रहण १, अतिक्रमादि
'त्रयस्त्रिंशदक्षरप्रमाणचूलासहितो नमस्कारो भणनीयः' दोष-त्याग ४, द्रव्यादि अभिग्रह ४ और व्रत ६ आदि २७ गुण हैं।
(अभिधानराजेन्द्रकोश, भा. ४, पृष्ठ १८३६) भावदया जिन के हृदपद्म में विराजमान है, ऐसे साधु मुनिराज
अतः पैंतीस अक्षरप्रमाण मंत्र और तेंतीस अक्षर चूला नित्य आत्म-साधना करते हुए 'कर्म से संत्रस्त जीव किस ।
दोनों को मिलाकर अड़सठ अक्षरप्रमाण श्री नमस्कार-मंत्र का प्रकार से बचें ?' इस उपाय को सोचते हुए क्रोध, मान, माया
स्मरण करना चाहिए, न्यूनाधिक पढ़ना दोषमूलक है।
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