Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व -
संघनायक आचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. श्री अनिलकुमार ज्ञानचन्दजी चौपड़ा,
जावरा...
सूरिपद से अलंकृत होने के कुछ दिन पश्चात् तक श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी आहोर में ही विराजमान रहे। फिर आहोर से विहार का आप हरजी पधारे और वहाँ प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न करवाया। हरजी से विहार कर आप डूडसी पधारे और वहाँ भी प्रतिष्ठोत्सव सम्पन्न करवाया। साथ ही उसी दिन अर्थात् सं. १९९५ आषाढ शुक्ला एकादशी को वैरागी कन्हैयालाल को आपने दीक्षाव्रत प्रदान कर मुनिश्री न्यायविजय जी म.के. नाम से प्रसिद्ध किया।
वर्षावास काल समीप ही था। अभी तक आचार्य देव के वर्षावास का निर्णय नहीं हुआ था। डूडसी में समीपवर्ती अनेक ग्राम-नगरों के श्रीसंघ एवं गुरुभक्त अपने नूतन आचार्य भगवन् के दर्शन करने एवं जिनवाणी का अमृतपान करने के उद्देश्य से आये थे। यहाँ लगभग सभी ग्रामों से आये श्रीसंघों ने अपनेअपने यहाँ वर्षाकाल करने की अपनी-अपनी आग्रह भरी विनती आचार्यदेव के समक्ष प्रस्तुत की। बागरा श्रीसंघ के सत्याग्रह और अन्य अनेक प्रबल कारणों से आगामी वर्षावास के लिए बागरा श्रीसंघ को आचार्य भगवन् ने स्वीकृति प्रदान कर दी। वर्षावास की स्वीकृति मिलते ही हर्ष की लहर व्याप्त हो गयी। और जय-जयकार के निनाद गूंज उठे। नाशिक
आचार्य भगवन् ने आषाढ शुक्ला त्रयोदशी सं. १९९५ को डूडसी से विहार किया और बागरा पधार गये। आषाढ शुक्ला चतुर्दशी को प्रात: दस बजे आप का नगर प्रवेश हुआ। आचार्य पद से अलंकृत होने के पश्चात् आपका यह प्रथम वर्षावास था। आचार्य देव एवं मुनि मण्डल का नगर प्रवेश अति शोभनीय उपकरणों एवं सजधज के साथ हुआ। अपार जनसमूह आप के दर्शन करने के लिए उमड़ पड़ा। स्थान-स्थान पर नव वधुएँ अपने आराध्य आचार्य देव को बधाने के लिए कुंकुम भरे थाल और मोती - अक्षत लिए खड़ी थी। उपाश्रय में आकर प्रवेशोत्सव का चल समारोह धर्मसभा के रूप में परिवर्तित हो गया। इस धर्मसभा को संबोधित करते हुए आचार्य देव ने अपने सागरर्भित प्रवचन में ज्ञान की महत्ता और उसकी आवश्यकता की अनिवार्यता पर विस्तार से प्रकाश डाला। आप के इस प्रवचन का प्रभाव भी हुआ।
समय के प्रवाह के साथ वर्षावास की अवधि भी व्यतीत होती रही। बागरा के श्रावकों के मानस पटल पर आप के विचारों को मूर्तरूप प्रदान करने के विचार उभरे और अंततः सं. १९९५ आश्विन शुक्ला ६ दिनां. २९.११.१९३८ को हर्षोल्लासमय वातावरण में श्री राजेन्द्र जैन गुरुकुल की स्थापना हो गयी। इसके अतिरिक्त इस वर्षावासकाल में तपाराधना के साथ पूजाओं का और प्रभावनाओं का अतिशय ठाट
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