Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- चीन्द्रसरि स्मारकग्रन्यय जैन दर्शन क्षयोपशम प्राप्त हो चुका है उसे ही यह अत्यंत विशिष्ट अवधिज्ञान और मनः पर्यायज्ञान में अंतर - क्षायोपशमिक किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है। जिससे वह मनुष्य लोकवर्ती मनःपर्याप्ति धारण करने वाले पंचेन्द्रिय
उमास्वाति ने इन दोनों ज्ञानों में विशुद्धिकृत, क्षेत्रकृत, स्वामीकृत प्राणिमात्र के त्रिकालवी मनोगत विचारों को बिना इन्द्रिय और और विषयकृत इन चार भेदों का उल्लेख किया है-- मन की सहायता से ही जान सकता है। आवश्यकनियुक्ति५ के (१) विशुद्धिकृत - विशुद्धि का अर्थ निर्मलता है। अवधिज्ञान अनसार मन:पर्याय ज्ञान का अधिकारी केवल मनुष्य ही होता की अपेक्षा मन:पर्यायज्ञान की विशद्धि या निर्मलता अधिक है और मनुष्यों में भी वह चरित्रवान होता है। नन्दीसूत्र में द्रव्य, होती है, क्योंकि वह अपने विषय को अवधिज्ञान से अधिक क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से मनः पर्यायज्ञान का विवेचन करते हुए कहा गया है कि द्रव्यादि की दृष्टि से मन:पर्यायज्ञान के अंतर्गत वे पुद्गल द्रव्य जो मन के रूप में परिवर्तित होते हैं, आते
(२) क्षेत्रकृत - दोनों में क्षेत्रकृत विशेषता यह है कि अवधिज्ञान
। हैं, क्षेत्र की दृष्टि से यह मनुष्यक्षेत्र में पाया जाता है. काल की का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर संपूर्ण लोक पर्यंत दृष्टि से यह असंख्यात काल तक स्थित रहता है और भाव की
है। जबकि मनःपर्यायज्ञान का क्षेत्र मनुष्यलोक प्रमाण है, वह उतने दृष्टि से इनमें मनोवर्गणाओं की अनन्त अवस्थाएं देखी जा सकती
क्षेत्र के भीतर ही संज्ञी जीवों की मनोगत पर्यायों को जानता है। हैं। संयम की विशुद्धता मनः पर्यायज्ञान का बहिरंग कारण है (३) स्वामीकृत - अवधिज्ञान संयमी, साधु, असंयमी जीव और मनःपर्यायज्ञानावरण का क्षयोपशम अंतरंग कारण है। इन।
तथा संयतासंयत श्रावक इन सभी को हो सकता है तथा चारों दोनों कारणों के मिलने पर उत्पन्न होने वाला ज्ञान इंद्रिय अनिन्द्रिय
ही गति वाले जीवों को हो सकता है, जबकि मनःपर्यायज्ञान सहायता के बिना मनुष्य के मनोगत विचारों को जान लेता है।
प्रमत्त संयत से लेकर क्षीणकषाय-गुणस्थान तक के उत्कृष्ट विषयभेद की अपेक्षा से इस ज्ञान के दो भेद हैं - चारित्र से युक्त जीवों में ही पाया जाता है। (१) ऋजुमति (२) विपुलमति७७
(४) विषयकृत - ज्ञान द्वारा जो पदार्थ जाना जाए उसे ज्ञेय ऋजुमति, जीव के द्वारा ग्रहण में आई हुई और मन के अथवा विषय कहते हैं। विषय की दृष्टि से अवधिज्ञान रूपी आकार में परिणत द्रव्य विशेष रूप मनोवर्गणाओं के अवलंबन द्रव्यों८२ एवं उसकी असंपूर्ण पर्यायों को जानता है परंतु अवधि से विचार रूप पर्यायों को इंद्रिय और अनिन्द्रिय की अपेक्षा के के विषय का अनन्तवाँ भाग मनःपर्याय का विषय है.३ अत: बिना ही जानता है। ऋजुमति, ऋजु-सामान्य दो तीन एवं केवल अवधि की अपेक्षा मन:पर्यायज्ञान का विषय अति सूक्ष्म है। वर्तमान पर्यायों को ही ग्रहण करता है। जबकि विपुलमति
(३) केवलज्ञान केवल ज्ञान सकल प्रत्यक्ष ज्ञान है। मोह मन:पर्याय ज्ञान त्रिकालवर्ती, मनुष्य के द्वारा चिंतित, अचिंतित
ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय कर्म के क्षय से यह ज्ञान एवं अर्द्धचिंतित ऐसे तीनों प्रकार की पर्यायों को जान सकता है।
प्रकट होता है। केवलज्ञान का विषय संपूर्ण द्रव्य और उनकी ये दोनों ही प्रकार के ज्ञान दर्शनपूर्वक नहीं हुआ करते जबकि
सभी पर्यायें हैं। जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और अवधिज्ञान प्रत्यक्ष होकर भी दर्शनपूर्वक होता है।
काल इन सभी द्रव्यों की पृथक्-पृथक् तीनों कालों में होने मन:पर्याय ज्ञान के इन दोनों भेदों में उमास्वाति ने दो वाली अनंतानन्त पर्यायें हैं। अत: जो ज्ञान इन सबको जानता है विशेषताएँ और बताई हैं--(१) विशुद्धकृत (२) अप्रतिपातकृत वह केवल ज्ञान है। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विशिष्ट तथा
ऋजुमति-मन:पर्यायज्ञान की अपेक्षा विपुलमति पर्यायज्ञान उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त सभी पदार्थों को ग्रहण करता है और अधिक विशुद्ध हुआ करता है तथा विपुलमति अप्रतिपाती है। संपूर्ण लोक-अलोक को विषय करता है। इससे उत्कृष्ट और क्योंकि ऋजुमति मन:पर्यायज्ञान उत्पन्न होकर छूट भी जाता है, कोई भी ज्ञान नहीं है और न ही कोई ऐसा ज्ञेय है जो केवलज्ञान
और एक ही बार नहीं अनेक बार उत्पन्न होकर छूट जाता है, परंतु का विषय न हो। केवल ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् व्यक्ति को विपुलमति अप्रतिपाती होने से उत्पन्न होने के अनंतर जब तक कुछ भी जानना शेष नहीं रहता, अत: उसे सर्वज्ञ कहा जाता है। केवल ज्ञान प्रकट न हो तब तक नहीं छूटता।
सर्वज्ञ विश्व के समस्त पदार्थों के तीनों कालों की समस्त पर्यायों
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