Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
मानववाद और अपरिग्रहवाद
मानववाद आर्थिक समानता में विश्वास करता है । मानववादी दृष्टिकोण में आर्थिक क्रियाएँ समस्त मानवीय चिंतन और प्रगति की केन्द्रबिंदु हैं। वस्तुतः मानववाद के अनुसार आर्थिक विषमता ही सामाजिक विषमता का मूल कारण है। इस आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए ही जैन दर्शन ने अपरिग्रह का सिद्धान्त दिया है। परिग्रह, जिसे संग्रहवृत्ति भी कहा जाता है, एक प्रकार की सामाजिक हिंसा है। यह परिग्रहवृत्ति आसक्ति से उत्पन्न होती है। आसक्ति का दूसरा नाम लोभ है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि लोभ समग्र सद्गुणों का विनाशक है १ २ । तृष्णा के स्वरूप को बताते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है। • यदि सोने और चाँदी के कैलाशपर्वत के समान असंख्य पर्वत भी खड़े कर दिए जाएँ तो भी यह दुष्पूर्ण तृष्णा शांत नहीं हो सकती, क्योंकि धन चाहे कितना भी हो वह सीमित ही है तृष्णा अनन्त और असीम है, अतः सीमित साधनों से इस असीम तृष्णा की पूर्ति नहीं की जा सकती। अतः जैन आचारदर्शन के अनुसार व्यक्ति आसक्ति की भावना का त्याग करके अनासक्ति को जीवन में उतारने का प्रयत्न करे। क्योंकि उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप में कहा गया है कि जो समविभाग और समवितरण नहीं करता उसकी मुक्ति संभव नहीं है। ऐसा व्यक्ति पापी है १४ । अतः व्यक्ति को उतना ही संग्रह करना चाहिए जितने की उसको आवश्यकता है। आवश्यकता से तात्पर्य है - जो जीवन को बनाए रखे और व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को कुण्ठित न करे। इस प्रकार जैन दर्शन न केवल आवश्यकता का परिसीमन करता है, बल्कि यह भी बताता है कि हमें जीवन की अनिवार्यताओं और तृष्णा के अंतर को जानना एवं समझना चाहिए। तृष्णा अनन्तता है तो अनिवार्यता सीमितता । संग्रह और शोषण की दुष्प्रवृत्तियों के फलस्वरूप आर्थिक एवं वर्ग संघर्ष का जन्म होता है । इस वर्ग संघर्ष को दूर करने का एकमात्र उपाय है- अपरिग्रह का सिद्धान्त । साधक हो या गृहस्थ, उसे अपरिग्रह के मार्ग पर चलने को जैन आचार-दर्शन में आवश्यक माना गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मानववाद और जैन-चिंतन दोनों ही मानव मात्र की समानता में विश्वास करते हैं। दोनों के अनुसार संग्रह और वैयक्तिक परिग्रह सामाजिक जीवन के लिए अभिशाप है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य को जीने का समान अधिकार है।
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मानववाद और अनैकान्तिक दृष्टि
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सामाजिक विषमता का एक प्रमुख कारण वैचारिक भिन्नता भी है। अनेकान्तवाद इस वैचारिक भिन्नता को दूर करता है । अनेक से तात्पर्य है अनेक धर्म (लक्षण), अनेक सीमाएँ, अनेक अपेक्षाएँ, अनेक दृष्टियाँ आदि। जो किसी एक धर्म, एक सीमा, एक अपेक्षा तथा एक दृष्टि को सत्य मानता है और अन्य दृष्टियों को गलत कहता है, वह एकान्तवादी कहलाता है तथा जो अनेक धर्मों या अपेक्षाओं को मान्यता प्रदान करता है, वह अनेकान्तवादी कहलाता है। 'अनन्तधर्मात्मकं वस्तु' अर्थात् वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं। उन अनन्त धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समय-समय पर कथन करता है। वस्तु के उन अनन्त धर्मों के दो प्रकार होते हैं--गुण और पर्याय। जो धर्म वस्तु के स्वरूप का निर्धारण करते हैं अर्थात् जिनके बिना वस्तु का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता, उन्हें गुण कहते हैं, जैसे मनुष्य में मनुष्यत्व सोना में सोनापन । मनुष्य में यदि मनुष्यत्व न हो तो वह और कुछ हो सकता है मनुष्य नहीं। इसी प्रकार यदि सोने में सोनापन न हो तो वह अन्य कोई द्रव्य हो सकता है। सोना नहीं। गुण वस्तु में स्थायी रूप से रहता है, जबकि पर्याय बदलते रहते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन स्थायित्व और अस्थायित्व का समन्वय करते हुए कहता है कि वस्तु गुण की दृष्टि से ध्रुव है, स्थायी है तथा पर्याय की दृष्टि से अस्थायी है। भगवतीसूत्र ५ में कहा गया है- हम, जो अस्ति है उसे अस्ति कहते हैं, जो नास्ति है उसे नास्ति कहते हैं । प्रत्येक पदार्थ है भी और नहीं भी। अपने निजस्वरूप से है और परस्वरूप से नहीं है। अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता, पिता रूप में सत् है और पररूप की अपेक्षा से पिता, पिता रूप में असत् है । यदि पर पुत्र की अपेक्षा से पिता ही है तो वह सारे संसार का पिता हो जाएगा, जो असंभव है। इसे और भी सरल भाषा में हम इस प्रकार कह सकते हैं - गुड़िया चौराहे पर खड़ी है। एक ओर से छोटा बालक आता है, वह उसे माँ कहता है। दूसरी ओर से एक वृद्ध आता है, वह उसे पुत्री कहता है। इसी प्रकार कोई उसे ताई, कोई मामी तो कोई फूफी कहता है। सभी एक ही व्यक्ति को विभिन्न नामों से संबोधित करते हैं तथा परस्पर संघर्ष करते हैं कि यह माँ ही है, पुत्री ही है, पत्नी ही है आदि। इस संघर्ष का समाधान अनेकान्तवाद करता है। वह कहता है कि यह तुम्हारे लिए माँ है, क्योंकि तुम इसके हो अन्य लोगों के लिए यह माँ नहीं है । वृद्ध से कहता है कि
पुत्र
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