Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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से आजीवकों पर ही पड़ा, क्योंकि गोशालक महावीर के पास उनके दूसरे नालन्दा चातुर्मास के मध्य पहुँचा था, जबकि महावीर उसके आठ मास पूर्व ही अचेल हो चुके थे दूसरे यह कि आजीवकों की परम्परा गोशालक के पूर्व भी अस्तित्व में थी, गोशालक आजीवक परम्परा का प्रवर्तक नहीं था। न केवल भगवतीसूत्र में, अपितु पालित्रिपटक में भी गोशालक के पूर्व हुए आजीवक सम्प्रदाय के आचार्यों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। यदि आजीवक सम्प्रदाय महावीर के पूर्व अस्तित्व में था तो इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि उसकी अचेलता आदि कुछ आचार-परम्पराओं ने महावीर को प्रभावित किया हो। अतः पार्श्वापत्य परम्परा के प्रभाव से महावीर के द्वारा वस्त्र का ग्रहण करना और आजीवक परम्परा के प्रभाव से वस्त्र का परित्याग
करना मात्र काल्पनिक नहीं कहा जा सकता। उसके पीछे ऐतिहासिक एवं मनोवैज्ञानिक आधार है महावीर का दर्शन पार्थापत्यों से और आचार आजीवकों से प्रभावित रहा है।
जहाँ तक महावीर की शिष्य परम्परा का प्रश्न है यदि गोशालाक को महावीर का शिष्य माना जाए, तो वह अचेल रूप में ही महावीर के पास आया था और अचेल ही रहा जहाँ तक गौतम आदि गणधरों और महावीर के अन्य प्रारम्भिक शिष्यों का प्रश्न है मुझे ऐसा लगता है कि उन्होंने जिनकल्प अर्थात् भगवान् महावीर की अचलता को ही स्वीकार किया होगा, क्योंकि यदि गणधर गौतम सचेल होते या सचेत परम्परा के पोषक होते तो श्रावस्ती में हुई परिचर्चा में केशी उनसे सचलता और अचेलता के सम्बन्ध में कोई प्रश्न ही नहीं करते। अतः श्रावस्ती में हुई इस परिचर्चा के पूर्व महावीर का मुनि संघ पूर्णतः अचेल ही रहा होगा। उसमें वस्त्र का प्रवेश क्रमशः किन्हीं विशेष परिस्थितियों के आधार पर ही हुआ होगा। महावीर के संघ में सचेलता के प्रवेश के निम्नलिखित कारण सम्भावित है
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
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१. सर्वप्रथम जब महावीर के संघ में स्त्रियों को प्रव्रज्या प्रदान की गई तो उन्हें सवस्त्र ही दीक्षित किया गया क्योंकि लोक लज्जा, मासिक धर्म आदि शारीरिक कारणों से उन्हें नग्न रूप में दीक्षित किया जाना उचित नहीं था। अचेलता की सम्पोषक दिगम्बर- परम्परा भी इस तथ्य को स्वीकार करती है कि महावीर के संघ में आर्यिकाएँ सवस्व ही होती थीं जब एक बार आर्थिकाओं के संदर्भ में विशेष परिस्थिति में वस्त्र ग्रहण की स्वीकृति दी गई तो इसने मुनि संघ में भी आपवादिक परिस्थिति में जैसे भगन्दर आदि रोग होने पर वस्त्र ग्रहण का द्वार उद्घाटित कर दिया। सामान्यतया तो वस्त्र परिग्रह ही था किन्तु स्त्रियों के लिये और अपवादमार्ग में मुनियों के लिये उसे संयमोपकरण मान लिया गया।
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२. पुनः जब महावीर के संघ में युवा दीक्षित होने लगे होंगे तो महावीर को उन्हें भी सवस्ख रहने की अनुमति देनी पड़ी होगी, क्योंकि उनके जीवन में लिंगोत्थान और वीर्यपात की घटनाएँ सम्भव थी। ये ऐसी सामान्य मनोदेहिक घटनाएँ हैं जिनसे युवा मुनि का पूर्णतः बच पाना असम्भव है। मनोदैहिक दृष्टि से युवावस्था में चाहे कामवासना पर नियन्त्रण रखा जा सकता हो किन्तु उक्त स्थितियों का पूर्ण निर्मूलन
सम्भव नहीं होता है। निर्मन्य संघ में युवा मुनियों में ये घटनाएं घटित होती थीं, ऐसे आगमिक उल्लेख है यदि ये घटनाएँ अरण्य में घटित हों, तो उतनी चिन्तनीय नहीं थीं किन्तु भिक्षा, प्रवचन आदि के समय स्त्रियों की उपस्थिति में इन घटनाओं का घटित होना न केवल उस मुनि की चारित्रिक प्रतिष्ठा के लिये घातक था, बल्कि सम्पूर्ण निर्मन्थ मुनि संघ की प्रतिष्ठा पर एक प्रश्न चिह्न खड़ा करता था। अतः यह आवश्यक समझा गया कि जब तक वासना पूर्णतः मर न जाय, तब तक ऐसे युवा मुनि के लिये नग्न रहने या जिनकल्प धारण करने की अनुमति न दी जाय श्वेताम्बर मान्य आगमिक व्याख्याओं में तो यह स्पष्ट निर्देश है कि ३० वर्ष की वय के पूर्व जिनकल्प धारण नहीं किया जा सकता है सत्य तो यह है कि निर्मन्थ संघ में सचेल और अचेल ऐसे दो वर्ग स्थापित हो जाने पर यह व्यवस्था दी गई कि युवा मुनियों को छेदोपस्थापनीय चारित्र न दिया जाकर मात्र सामायिक चारित्र दिया जाय, क्योंकि जब तक व्यक्ति सम्पूर्ण परिग्रह त्याग करके अचेल नहीं हो जाता, तब तक उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं दिया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि महावीर ने ही सर्वप्रथम सामायिक चारित्र एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र (महाव्रतारोपण) ऐसे दो प्रकार के चारित्रों की व्यवस्था की जो आज भी श्वेताम्बर- परम्परा में छोटी दीक्षा और बड़ी दीक्षा के नाम से प्रचलित हैं। युवा मुनियों के लिये 'क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग किया गया और उसके आचार-व्यवहार के हेतु कुछ विशिष्ट नियम बनाये गये, जो आज भी उत्तराध्ययन और दशवैकालिक के क्षुल्लकाध्ययनों में उपस्थित हैं। महावीर ने छेदोपस्थापनीय चारित्र की व्यवस्था उन प्रौढ़ मुनियों के लिये की, जो अपनी वासनाओं पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त कर चुके थे और अचेल रहने में समर्थ थे। 'छेदोपस्थापना' शब्द का तात्पर्य भी यही है कि पूर्व दीक्षा पर्याय को समाप्त (छेद) कर नवीन दीक्षा (उपस्थापन) देना। आज भी श्वेताम्बर परम्परा में छेदोपस्थापना के समय ही महाव्रतारोपण कराया जाता है और तभी दीक्षित व्यक्ति की संघ में क्रम-स्थिति अर्थात् ज्येष्ठता / कनिष्ठता निर्धारित होती है और उसे संघ का सदस्य माना जाता है। सामायिक चारित्र ग्रहण करने वाला मुनि संघ में रहते हुए भी उसका सदस्य नहीं माना जाता है। इस चर्चा से यह फलित होता है कि निर्ग्रन्थ मुनि संघ में सचेल (क्षुल्लक) और अचेल (मुनि) ऐसे दो प्रकार के वर्गों का निर्धारण महावीर ने या तो अपने जीवन काल में ही कर दिया होगा या उनके परिनिर्वाण के कुछ समय पश्चात् कर दिया गया होगा। आज भी दिगम्बर- परम्परा में साधक की क्षुल्लक (दो वस्त्रधारी), ऐलक (एक वस्त्रधारी) और मुनि (अचेल) ऐसी तीन व्यवस्थाएँ हैं। अतः प्राचीनकाल में भी ऐसी व्यवस्था रही होगी, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि इन सभी सन्दर्भों में वस्त्र ग्रहण का कारण लोक-लज्जा या लोकापवाद और शारीरिक स्थिति ही था।
३. महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र के प्रवेश का तीसरा कारण सम्पूर्ण उत्तर भारत, हिमालय के तराई क्षेत्र तथा राजस्थान में शीत का तीव्र प्रकोप होना था महावीर के निर्धन्य संघ में स्थित वे मुनि जो या तो वृद्धावस्था में ही दीक्षित हो रहे थे या वृद्धावस्था की ओर [ १६ ]
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