Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - विद्वान् लोग परार्थमान कहते हैं। यहाँ पर दो बातें कही गई हैं-- होता है। किन्तु अंकर से ही आगे चलकर बीज भी बनता है। (क) स्वनिश्चय अर्थात् स्वयं को ज्ञान देना इसे स्वार्थानुमान इसलिए बीज के आधार पर अंकुर तथा अंकुर के आधार पर कहा जाता है। (ख) परार्थमान अर्थात् परार्थानुमान का अर्थ है बीज के अनुमान किए जा सकते हैं१२७।। जान। आगे इन्होंने परार्थानमान को परिभाषित किया है१२४ - माणिक्यनन्दी - माणिक्यनन्दी१२८ ने अनमान के दो उस हेत का जो साध्य के अभाव में कभी भी नहीं होता, प्रातपादन भेदों को प्रकाशित किया है. करने वाला वचन परार्थानुमान के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार सिद्धसेन ने अनुमान के दो प्रकारों पर प्रकाश डाला है।
(क) स्वार्थानुमान--साधन के आधार पर साध्य के संबंध
__ में ज्ञान कराने वाला जो अनुमान है, उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। अकलंक - अपने पूर्ववर्ती दार्शनिकों के द्वारा अनुमान भेद के संबंध में दिए गए विचारों का अकलंक ने खण्डन किया
(ख) परार्थानुमान---जो ज्ञान स्वार्थानुमान के विषयबोध है। उन्होंने अनुमान के त्रिविध, चतुर्विध तथा पंच विध रूपों को १
का प्रतिपादन करने वाले वचनों से होता है उसे परार्थानमान गलत बताया है। क्योंकि उनमें अव्याप्ति अथवा अतिव्याप्तिदोष
कहते हैं। देखे जाते हैं। अकलंक के विचार का अध्ययन करने के बाद वादिराज - वादिराज ने अनुमान का वर्गीकरण अपने डा. कोठिया ने कहा है--निष्कर्ष यह है कि ढंग से किया है। जो अन्य आचार्यों के द्वारा किए गए वर्गीकरणों अन्यथानुपपन्नत्वविशिष्ट ही एक हेतु अथवा अनुमान है। वह न से भिन्न है। पहले उन्होंने अनुमान को दो वर्गों में विभाजित किया त्रिविध है न चतुर्विध आदि। अत: अनुमान का त्रैविध्य और है१२९ - चातुर्विध्य उक्त प्रकार से अव्याप्त एवं अतिव्याप्त है। अकलंक
गौण - जो अनुमान के कारण होते हैं। के इस विवेचन से प्रतीत होता है कि अन्यथानुपपनत्व की अपेक्षा से हेतु एक ही प्रकार का है और तब अनुमान भी एक ही
मुख्य - साधन और साध्य के अविनाभावी संबंध के तरह का संभव है१२५।
आधार पर साध्य के संबंध में होने वाला ज्ञान। विद्यानन्द - विद्यानन्द के अनुसार अनुमान के तीन भेद हैं १२६
पुनः गौण अनुमान को वादिराज ने तीन भागों में विभाजित
किया है--स्मरण, प्रत्यभिज्ञा तथा तर्क। चूँकि ये अनुमान के __ (क) वीतानुमान--वह अनुमान जो विधि रूप अर्थ का कारण होते हैं. इसलिए इन्हें भी अनमान कहा जा सकता है, परिचायक है शब्द अनित्य है क्योंकि उत्पन्न होना इसका धर्म है। किन्त ये गौण अनमान ही कहे जा सकते हैं मख्य अनमान नहीं।
(ख) अवीतानुमान--वह अनुमान जो निषेध रूप अर्थ इस संबंध में अन्य तार्किकों ने यह आशंका व्यक्त की है कि का बोध कराता है जैसे जीवित शरीर को आत्मविहीन नहीं कह यदि स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को अनुमान मान लिया जाए, सकते, क्योंकि उसमें प्राण का संचार होता है।
क्योंकि ये अनुमान के कारण हैं तो प्रत्यक्ष को भी अनुमान ही (ग) वीतावीतानुमान--जो विधि और निषेध दोनों ही
क्यों नहीं माना जाए। प्रत्यक्ष भी तो अनुमान का कारण है। रूपों में ज्ञान प्रदान करता है। वह पर्वत अग्नि युक्त है, निरग्नि
इससे लगता है कि वादिराज द्वारा प्रतिपादित अनुमान का वर्गीकरण नहीं है, क्योंकि धूमयुक्त है।
अन्य आचार्यों को स्वीकार्य नहीं है। इसके अतिरिक्त विद्यानन्द ने अनुमान के त्रिविध रूपों
प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, देवसूरि, हेमचन्द्र इन सभी ने अनुमान पूर्ववत्, शेषवत् एवं सामान्यतोदृष्ट को अव्यापक मानते हुए
को स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान के रूपों में ही विभाजित चौथे अनुमान का भी प्रतिपादन किया है जिसे उन्होंने
किया है।३०। अनुमान के भेदों के संबंध में आचार्य हेमचन्द्र ने कारणकार्योभयानुमान की संज्ञा दी है। इसमें कारण से कार्य
कहा है-- और कार्य से कारण का अनुमान किया जाता है-बीज और तद् द्विधा स्वार्थ परार्थच। अंकुर। बीज कारण है और अंकुर कार्य, क्योंकि बीज से अंकुर स्वार्थस्वनिश्चितसाध्याविनाभावैकलक्षणात् साधनात् साध्यज्ञानम् १३१।।
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