Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - और जिसमें व्यापकता होती है उसकी प्रसिद्धि होती है। श्रीधराचार्य वेदान्त दर्शन - वेदान्त परिभाषा में व्याप्ति के संबंध में के अनुसार-किसी एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ स्वभावतः ऐसी उक्ति मिलती है१०९--व्याप्तिश्चाशेषसाधनाश्रयाश्रिता जो संबंध अवधारित किया जाता है, वही उपाधिशून्य व नियत साध्यसामानाधिकरण्यरूपा। इसमें तीन बातें प्रस्तुत की गई हैंहोने के कारण नियम अर्थात् व्याप्ति कहलाता है१६६। इसका -(१) साध्य के साथ हेतु के संबंध को व्याप्ति कहते हैं जो मतलब है कि व्याप्ति को उपाधिशून्य होना चाहिए किन्तु प्रश्न अशेष यानी सकल, साधनों में रहने वाला हो। इस तरह यह कहा उठता है कि उपाधि क्या है? इसके संबंध में नव्यन्याय के गंगेश जा सकता है कि सकल साधनों में रहने वाले साध्य के साथ उपाध्याय का मत है कि जिससे व्याभिचार ज्ञान होता है वह हेतु का सामान्याधिकरण्य ही व्याप्ति है। उपाधि है। इसकी उपस्थिति में व्याप्ति की कोई निश्चित जानकारी
बौद्ध-दर्शन - दिङ्नाग ने सद्हेतु पर प्रकाश डाला है नहीं हो सकती है। धूम और अग्नि के बीच संबंध बताया जाता उसी से हेत और साध्य के बीच देखी जाने वाली व्याप्ति की भी है और धूम को देखकर आग्नि का अनुमान किया जाता है। जानकारी हो जाती है। किन्त कर्णगोमिनं व्याप्तिः को स्पष्टतः किन्तु धूम और अग्नि के बीच स्वाभाविक संबंध नहीं है। जहाँ
व्यक्त करने का प्रयास किया है। उन्होंने व्याप्ति के लिए धूम है वहाँ अग्नि होती है, किन्तु जहाँ अग्नि होती है, यह
अविनाभाव शब्द का प्रयोग किया है। एक के अभाव में दूसरे आवश्यक नहीं है कि वहाँ धूम हो ही। गर्म लोहे में अग्नि तो का भी अभावअविनाभाव संबंध होता है. साध्य-धर्म के अभाव होती है, किन्तु ध्म नहीं होता है। यदि धूम और अग्नि में स्वाभाविक में कार्य स्वभाव लिङगों (चिन्हों) का न पाया जाना अविनाभाव संबंध होता तो दोनों सर्वदा साथ रहते। धूम इसलिए होता है कि
___ या व्याप्ति है।१०। इसको यदि दूसरे शब्दों में कहना चाहें तो कह लकड़ी में गीलापन होता है। यह गीलापन ही धूम का कारण है
सकते हैं कि साध्य के अभाव में साधन का अभाव या साधन अथवा अग्नि और धूम का संबंध बताने वाली उपाधि है।
के अभाव में साध्य का अभाव अविनाभाव है जिसे व्याप्ति या मीमांसा - प्रभाकर के अनुसार दो वस्तुओं के बीच जो अव्यभिचरित एवं नियत कार्य-कारण-भाव संबंध होते हैं, उन्हीं जैन-दर्शन - जैन प्रमाण में व्याप्ति के लिए अविनाभाव को सद्हेतु या व्याप्ति कहते हैं।
तथा अन्यथानुपपत्ति शब्द भी आए हैं। व्याप्ति के संबंध में सांख्य - व्याप्ति को परिभाषित करते हुए महर्षि कपिल माणिक्यनन्दी ने कहा है१११ - इयमस्मिन् सत्येव भवत्यसति तु ने कहा है१०७ - नियतधर्मसाहित्यमुभयोरेकतरस्य वा व्याप्ति अर्थात् न भवत्येव। नियतधर्मसाहचर्य ही व्याप्ति है। अर्थात् साध्य और साधन के
यथाऽग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च।। बीच पाया जाने वाला संबंध यदि नियत और व्यभिचार-रहित है तो उसी को व्याप्ति के नाम से जानते हैं।
अर्थात् अमुक के होने पर ही अमुक होता है और नहीं
होने पर नहीं होता है उसे अविनाभाव या व्याप्ति कहते हैं, जैसे योग - इस दर्शनपद्धति में व्याप्ति के लिए संबंध शब्द अग्नि के होने पर ही धम होता है और अग्नि के नहीं रहने पर का प्रयोग हुआ है और वह संबंध क्या है उस पर प्रकाश डालते
धूम नहीं होता है। यदि साध्य के अभाव में साधन अथवा साधन हुए कहा गया है१०४--अनुमेयस्यतुल्यजातीयेस्वनुवृत्तौ के अभाव में साध्य हो तो दोनों में व्याप्ति नहीं हो सकती, भले भिन्नजातीयेभ्यो व्यावृत्तः संबंधः अनुमेयः अर्थात् जिसका हम ही उसका आभास क्यों न ज्ञात हो। देवसूरि ने व्याप्ति को अनुमान कर रहे हैं, के साथ समान जाति में अनुवृत्ति तथा भिन्न त्रिकोणवर्ती कहा है अर्थात् यह भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों जाति में व्यावृत्ति रखता हो उसे संबंध कहते हैं। अनुवृत्ति अनुकूलता ही के लिए होती है। ऐसा नहीं देखा जाता कि कोई व्याप्ति को दर्शाती है तथा व्यावृत्ति प्रतिकूलता को। इससे यह स्पष्ट होता भतकाल में तो थी किन्त वर्तमान में नहीं है अथवा वर्तमान में है कि व्याप्ति स्वजातीय में अनुकूलता तथा विजातीय में है किन्त भविष्य में इसके होने की आशा नहीं है। व्याप्ति के प्रतिकूलता का बोध कराती है।
संबंध में आचार्य हेमचंद्र के विचार को डा. कोठिया ने बड़े ही
स्पष्ट शब्दों में रखा है---व्याप्ति. व्याप्य और व्यापक दोनों का triandramdandramodorandurbarmovindiamoromowoanivaard-५ १ dminirominiududhudumorondrainirodutoudvaratra
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