Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन वैशेषिक - भारतीय दर्शन में सर्वप्रथम अनुमान की परिभाषा है। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि उस व्याप्तिज्ञान से महर्षि कणाद के द्वारा वैशेषिक सूत्र में प्रस्तुत की गई है-अस्येदं जो व्याप्तिज्ञानत्व धर्म से अविच्छिन्न है, उत्पन्न होने वाला ज्ञान कार्यकारणं संयोगिविरोधिसमवायि चेति लैङ्गिकम् अर्थात् कार्य, अनुमिति है १२। कारण, संयोगी, विरोधी तथा समवायी लिङ्गों को देखने के बाद
बौद्ध - बौद्धाचार्य दिङ्नाग ने अनुमान पर प्रकाश डालते उनसे संबंधित जो ज्ञान होता है, उसे अनुमान कहते हैं।
हए कहा है१३ - नान्तरीयकार्थदर्शनं तद्विदोऽनुमानम् इति। न्याय - प्राचीन न्याय में महर्षि गौतम ने अनुमान को जिस रूप अविनाभाव संबंध जो ज्ञात है उसके आधार पर नान्तरीयक अर्थ में परिभाषित किया है उसे अभी अनुमान के शब्दार्थ को समझते का दर्शन होना ही अनुमान है१४ | एक वस्तु का जब दूसरे के समय हम लोगों ने देखा है। नव्य न्याय के चिंतक गंगेश उपाध्याय अभाव में भाव नहीं होता है, तब उनके संबंध को नान्तरीयक ने लिखा है - तत्र व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मता ज्ञानजन्यं ज्ञानमनुमितिः कहते हैं। धर्मकीर्ति ने बहुत ही सरल ढंग से अनुमान को परिभाषित तत्करामनुमानं तच्च लिङ्गपरामर्शो न तु परामृश्यमानं लिङ्गमिति किया है। उनके अनुसार धर्मी के संबंध में जो ज्ञान परोक्ष रूप से वक्ष्यते। जो ज्ञान व्याप्ति विशिष्ट पक्षधर्मता से उत्पन्न होता है, उसे किसी संबंधी के धर्म के कारण होता है उसे अनुमान कहते हैं १५॥ अनुमिति कहते हैं तथा जो अनुमिति का कारण होता है, उसे अनुमान कहते हैं। अनुमान लिङ्ग विषयक परामर्श होता है,
पाश्चात्य तर्क किन्तु वह परामृश्यमान लिङ्ग नहीं हो सकता।
प्राचीनकाल के ग्रीक दार्शनिक अरस्तु ने तर्क की निगमन सांख्य - महर्षि कपिल ने अनमान का निरूपण करते।
(Deductive) पद्धति पर अनुमान प्रतिष्ठित किया। आधुनिक हुए कहा है -
युग के बुद्धिवादी तथा अनुभववादी दार्शनिकों ने क्रमशः निगमन
तथा आगमन पद्धतियों को अपने-अपने चिंतन का आधार प्रतिबन्धदृशः प्रतिबद्धज्ञानमनुमानम्
बनाया। काण्ट ने अपनी ज्ञानमीमांसा में दोनों पद्धतियों को प्रतिबन्ध दर्शन अर्थात लिङ्ग को देखकर प्रतिबद्ध को समन्वित किया है। निगमन-पद्धति सामान्य से विशेष की ओर जानना अनुमान है।
बढ़ती है तथा आगमन-पति विशेषों के आधार पर सामान्य योग- योगसूत्र के भाष्यकार के अनुसार
का निर्धारण करती है। आ के वे दार्शनिक जो विज्ञान से
-- अनुमान करने योग्य वस्तु समान जातियों से युक्त करने वाला तथा भिन्न
प्रभावित हैं, आगमन पद्धति को ही अपनाते हैं। अनुमान के जातियों से पृथक् करने वाला जो संबंध है, तद्विषयक सामान्य
संबंध में प्रसिद्ध दार्शनिक मिल का विचार है१६ - अनुमान का रूप से निश्चय करने वाली प्रधान वत्ति को अनमान कहते हैं। मूल रूप है- एक विशिष्ट तथ्य से (या बहुत से विशिष्ट तथ्यों जैसे-चन्द्रमा, तारागण आदि गतिशील हैं. देशान्तर की प्राप्ति से) दूसरे विशिष्ट तथ्य (या तथ्यों) की ओर जाना। हम विशिष्ट होने से, चैत्र पुरुष के समान तथा देशान्तर प्राप्ति होने वाला न तथ्यों के प्रेक्षण से प्रारंभ करते हैं, और तब प्रेक्षित एवं अप्रेक्षित होने के कारण विन्ध्याचल पर्वत गतिमान नहीं है।
तथ्यों को सम्मिलित करने वाला एक सामान्य कथन करते हैं। - मीमांसा - मीमांसासत्र पर भाष्य लिखते हुए शबर स्वामी प्रस्तुत परिभाषाओं के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है ने कहा है१० - अनुमानं ज्ञातसंबंधस्यैकदेशदर्शनादेक- कि निम्नलिखित स्थितियों में ही कोई व्यक्ति अनुमान कर देशान्तरेऽसंनिकृष्टेऽर्थेबुद्धिः।
सकता है - . अर्थात् ज्ञातसंबंध यानी व्याप्ति के संबंधियों में से एक (१) पहले से कुछ ज्ञात हो। को जान लेने के बाद दूसरे के असनिकृष्ट अर्थ को जान लेना ही (२) ज्ञात और जिसे हम जानना चाहते हैं के बीच व्याप्ति अनुमान है।
या अविनाभाव संबंध हो। वेदान्त- वेदान्त-परिभाषा में कहा गया है ११ - अनुमिति इसी को कणाद ने और अधिक स्पष्ट रूप से कहा है कि करणम् अनुमान्। अर्थात् अनुमिति का जो करण है वह अनुमान देखने के बाद ही अनुमान संभव है। मिल के द्वारा दी गई
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