Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ अतिरिक्त जीतकल्प सूत्र पर एक और चूर्णि लिखी गई है ऐसा प्रस्तुत चूर्णि के अध्ययन से ज्ञात होता है। यह चूर्णि अथ से इति तक प्राकृत में है। इसमें एक भी वाक्य ऐसा नहीं है जिसमें संस्कृत शब्द का प्रयोग हुआ हो। प्रारंभ में आचार्य ने ग्यारह गाथाओं द्वारा भगवान महावीर, एकादश गणधर, अन्य विशिष्ट ज्ञानी तथा सूत्रकार जिनभद्र क्षमाश्रमण इन सबको नमस्कार किया है। ग्रंथ में यत्र-तत्र अनेक गाथाएँ उद्धृत की गई हैं। इन गाथाओं को उद्धृत करते समय आचार्य ने किसी ग्रंथ आदि का निर्देश न करके 'तं जहा भणियं च'. सो... इमो' इत्यादि वाक्यों का प्रयोग किया है।५४ इसी प्रकार अनेक गद्यांश भी उद्धृत किए गए हैं।
जीतकल्पचूर्णि में भी उन्हीं विषयों का संक्षिप्त गद्यात्मक व्याख्यान है, जिनका जीतकल्पभाष्य में विस्तार से विवेचन किया गया है। सर्वप्रथम आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीतव्यवहार का स्वरूप समझाया गया है। जीत का अर्थ इस प्रकार किया गया है-- जीयं ति वा करणिज्जं ति वा आयरणिज्जं ति वा एयटुं । जीवेइ वा तिविहे वि काले तेण जीयं । ५५ इसी प्रकार चूर्णिकार ने दस प्रकार के प्रायश्चित, नौ प्रकार के व्यवहार, मूलगुण, उत्तरगुण आदि का विवेचन किया है। अंत में पुनः सूत्रकार जिनभद्र को नमस्कार करते हुए निम्न गाथाओं के साथ चूर्णि समाप्त की है । ५६
इति जेण जीयदाणं साहूणऽइयारपंकपरिसुद्धिकरं । गाहाहिं फुडं रइयं महुरपयत्थाहिं पावणं परमहियं ॥ जिणभद्दखमासमणं निच्छियसुत्तत्थदायगामलचरणं । तमहं वंदे पयओ परमं परमोवगारकारिणमहग्घं ॥
दशवैकालिकचूर्णि (अगस्त्यसिंहकृत)
यह चूर्णि५७ जिनदासगणि की कही जाने वाली दशवैकालिकचूर्णि से भिन्न है। इसके लेखक हैं वज्रस्वामी की शाखा - परंपरा के एक स्थविर श्री अगस्त्य सिंह | यह प्राकृत में है । भाषा सरल एवं शैली सुगम है। इसकी व्याख्यानशैली के कुछ नमूने यहाँ प्रस्तुत करना अप्रासंगिक न होगा। आदि, मध्य और अन्त्य मंगल की उपयोगिता बताते हुए चूर्णिकार कहते हैं
आदिमंगलेण आरम्भप्पभितिं णिव्विसाया सत्थं पडिवज्जंति, मज्झमंगलेण अव्वासंगेण पारं गच्छंति, अवसाणमंगलेण सिस्स पसिस्ससंताणे पडिवाएंति । इमं पुण सत्थं संसारविच्छेयकरं ति
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जैन आगम एवं साहित्य
सव्वमेव मंगलं तहावि विसेसो दरिसिज्जति आदि मंगलमिह धम्मो मंगलमुक्कट्ठे (अध्य. १, गा. १) धारेति संसारे पडमाणमिति धम्मो, एतं च परमं समस्सासकारणं ति मंगलं । मज्झे धम्मत्थकामपढमसुत्तं णाणदंसणसंपण्णं संजमे य तवे रयं (अध्य. ६, गा. १ ) एवं सो चेव धम्मो विसेसिज्जति, यथा-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः (तत्त्वा. अ. १ - १ ) इति । अवसाणे आदिमज्झदिट्ठविसेसियस्स फलं दरिसिज्जति छिंदित्तु जातीमरणस्स बंधणं उवेति भिक्खू अपुणागमं गतिं (अध्य. १०, गा. २१) एवं सफलं सकलं सत्थं ति । ५८
दशकालिक, दशवैकालिक अथवा दशवैतालिक की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया है-
दशकं अज्झयणाणं कालियं निरूत्तेण विहिणा ककारलोपे कृते दसकालियं । अहवा वेकालियं, मंगलत्थं पुव्वण्हे सत्थारंभो भवति, भगवया पुण अज्जसेज्जंवेणं कहमवि अवरहकाले उवयोगा कतो, कालातिवायविग्घपरिहारिणा य निज्जूढमेव, अतो विगते काले विकाले दसकमज्ज्ञयणाण कतमिति दसवेकालियं । चउपोरिसितो सज्झायकाले तम्मि विगते वि पढिज्जतीति विगयकालियं दसवेकालियं । दसमं वा वेतालियो पजाति वृत्तेहिं णियमितमज्झयणमिति दसवेतालियं । ५९
३४
षड्जीवनिका नामक चतुर्थ अध्ययन के अर्थाधिकार का विचार करते हुए चूर्णिकार कहते हैं-
जीवाजीवाहिगमो गाहा । पढमो जीवाहिगमो, अहियोपरिण्णाणं १ ततो अजीवाधिगमो २ चरित्तधम्मो ३ जयणा ४ उसो ५ धम्मफलं । तस्स चत्तारि अणओगद्दारा जहा आवस्सए । नामनिप्फण्णो भण्णति..६१
दशवैकालिक के अंत की दो चूलाओं-रतिवाक्यचूला और विविक्तचर्याचूला की रचना का प्रयोजन बताते हुए आचार्य कहते हैं-
धम्मे धितिमतो खुड्डियायारोत्थितस्स विदित्तछक्कायवित्थरस्स एसणीयादिधारितसरीरस्स समत्तायारावत्थितस्स वयणविभागकुसलस्स सुप्पणिहितजोगजुत्तस्स विणीयस्स दसमज्झयणोपवण्णितगुणस्स समत्तसकलभिक्खु भावस्स विसेसेण थिरीकरणत्थं विवित्तचरियोवदेसत्थं च उत्तरतं तमुपदिट्टं चूलितादुतं रतिवक्कं
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