Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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---नीन्दसरिरमारकगत्य जैन आगम एवं साहित्य - शूरसेनानां भाषा शौरसेनी सा च लक्ष्यलक्षणाभ्यां स्फुटीक्रियते इति उसी का देश-प्रदेश के आधार पर किया गया संस्कारित रूप संस्कृत वेदितव्यम्। अधिकारसूत्रमेतदापरिच्छेदसमाप्तेः १२/१, प्रकृतिः और उसके विभिन्न भेद, अर्थात् विभिन्न साहित्यिक प्राकृतें हैं। सत्य संस्कृतम्-१२/२। टीका- शौरसेन्यां ये शब्दास्तेषां प्रकृति: संस्कृतम्।। यह है कि बोली के रूप में तो प्राकृतें ही प्राचीन हैं और संस्कृत प्राकृतप्रकाश के उक्त सूत्र के आधार पर हमें यह भी स्वीकार करना उनका संस्कारित रूप हैं- वस्तुत: संस्कृत विभिन्न प्राकृत बोलियों होगा कि शौरसेनी प्राकृत संस्कृत से उत्पन्न हुई। इस प्रकार प्रकृति के बीच सेतु का काम करने वाली एक सामान्य साहित्यिक भाषा के का अर्थ उद्गम स्थल करने पर उसी प्राकृतप्रकाश के आधार पर यह रूप में अस्तित्व में आई। भी मानना होगा कि मूलभाषा संस्कृत थी और उसी से शौरसेनी उत्पन्न यदि हम भाषा-विकास की दृष्टि से इस प्रश्न पर चर्चा करें तो हुई। क्या शौरसेनी के पक्षधर इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार भी यह स्पष्ट है कि संस्कृत सुपरिमार्जित; सुव्यवस्थित और व्याकरण हैं? भाई सुदीप जी, जो शौरसेनी के पक्षधर हैं और 'प्रकृति: शौरसेनी' के आधार पर सुनिबद्ध भाषा है। यदि हम यह मानते हैं कि संस्कृत के आधार पर मागधी को शौरसेनी से उत्पन्न बताते हैं, वे स्वयं भी से प्राकृतें निर्मित हुई हैं, तो हमें यह भी मानना होगा कि मानव जाति 'प्रकृति कृतम् – प्राकृतप्रकाश १२/२' के आधार पर यह मानने अपने आदिकाल में व्याकरणशास्त्र के नियमों से संस्कृत भाषा बोलती को तैयार नहीं हैं कि प्रकृति का अर्थ उससे उत्पन्न हुई ऐसा है। वे थी और उसी से अपभ्रष्ट होकर शौरसेनी और शौरसेनी से अपभ्रष्ट स्वयं लिखते हैं “आज जितने भी प्राकृत व्याकरणशास्त्र उपलब्ध हैं, होकर मागधी, पैशाची, अपभ्रंश आदि भाषाएँ निर्मित हुईं। इसका वे सभी संस्कृत भाषा में हैं एवं संस्कृत व्याकरण के मॉडल पर निर्मित अर्थ यह भी होगा कि मानव जाति की मूल भाषा अर्थात् संस्कृत से है। अतएव उनमें 'प्रकृति: संस्कृतम्' जैसे प्रयोग को देखकर कतिपयजन अपभ्रष्ट होते-होते ही विभिन्न भाषाओं का जन्म हुआ, किन्तु मानव ऐसा भ्रम करने लगते हैं कि प्राकृतभाषा संस्कृत भाषा से उत्पन्न हुई, जाति और मानवीय संस्कृति के विकास का वैज्ञानिक इतिहास इस ऐसा अर्थ कदापि नहीं है- 'प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर ९६, बात को कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। पृ.१४। भाई सुदीप जी, जब शौरसेनी की बारी आती है, तब आप वह तो यही मानता है कि मानवीय बोलियों के संस्कार द्वारा प्रकृति का अर्थ आधार मॉडल करें और जब मागधी का प्रश्न आये ही विभिन्न साहित्यिक भाषाएँ अस्तित्व में आईं अर्थात् विभिन्न बोलियों तक आप 'प्रकृतिः शौरसेनी' का अर्थ मागधी शौरसेनी से उत्पन्न हुई से ही विभिन्न भाषाओं का जन्म हुआ है। वस्तुतः इस विवाद के मूल ऐसा करें- यह दोहरा मापदण्ड क्यों? क्या केवल शौरसेनी को प्राचीन में साहित्यिक भाषा और लोक भाषा अर्थात् बोली के अन्तर को नहीं
और मागधी को आर्वाचीन बताने के लिये। वस्तुत: प्राकृत और संस्कृत समझ पाना है। वस्तुत: प्राकृतें अपने मूलस्वरूप में भाषाएँ न होकर शब्द स्वयं ही इस बात के प्रमाण हैं कि उनमें मूलभाषा कौन बोलियाँ रही हैं। यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि प्राकृत कोई सी है?
एक बोली नहीं अपितु बोली समूह का नाम है। जिस प्रकार प्रारम्भ संस्कृत शब्द स्वयं ही इस बात का सूचक है कि संस्कृत स्वाभाविक में विभिन्न प्राकृतों अर्थात् बोलियों को संस्कारित करके एक सामान्य या मूल भाषा न होकर एक संस्कारित कृत्रिम भाषा है। प्राकृत शब्दों वैदिक भाषा का निर्माण हुआ, उसी प्रकार कालक्रम में विभिन्न बोलियों एवं शब्द रूपों का व्याकरण द्वारा संस्कार करके जो भाषा निर्मित होती को अलग-अलग रूप में संस्कारित करके उनसे विभिन्न साहित्यिक है, उसे ही संस्कृत कहा जा सकता है, जिसे संस्कारित न किया गया प्राकृतों का निर्माण हुआ। अत: यह एक सुनिश्चित सत्य है कि बोली हो वह संस्कृत कैसे होगी? वस्तुतः प्राकृत स्वाभाविक या सहज भाषा । के रूप में प्राकृतें मूल एवं प्राचीन हैं और उन्हीं से संस्कृत का विकास है और उसी को संस्कारित करके संस्कृत भाषा निर्मित हुई है। इस एक 'कामन' (Common) भाषा के रूप में हुआ। प्राकृतें बोलियाँ हैं दृष्टि से प्राकृत मूल भाषा है और संस्कृत उससे उद्भूत हुई है। और संस्कृत भाषा। बोली को व्याकरण से संस्कारित करके एकरूपता
हेमचन्द्र के पूर्व थारापद्रगच्छीय नमिसाधु ने रुद्रट के काव्यालङ्कार देने से भाषा का विकास होता है। भाषा से बोली का विकास नहीं की टीका में प्राकृत और संस्कृत शब्द का अर्थ स्पष्ट कर दिया है। होता है। विभिन्न प्राकृत बोलियों को आगे चलकर व्याकरण के नियमों वे लिखते हैं -
से संस्कारित किया गया तो उनसे विभिन्न प्राकृतों का जन्म हुआ। सकल जगज्जन्तेनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कार: सहजो वचनव्यापारः जैसे मागधी बोली से मागधी प्राकृत का, शौरसेनी बोली से शौरसेनी प्रकृति: तत्र भवं सैव वा प्राकृतम्। आरिसवयणे सिद्ध, देवाणं अद्धमागहा प्राकृत का और महाराष्ट्र की बोली से महाराष्ट्री प्राकृत का विकास वाणी इत्यादि, वचनाद्वा प्राक् पूर्वकृतं प्राकृतम्- बालमहिलादि सुबोधं हुआ। प्राकृत के शौरसेनी, मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि भेद तत्-तत् सकलभाषानिबन्धनभूतवचनमुच्यते। मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव प्रदेशों की बोलियों से उत्पन्न हुए हैं न कि किसी प्राकृत विशेष से। च देशविशेषात् संस्कारकरणात् च समासादितविशेष सत् संस्कृतादुत्तर- यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कोई भी प्राकृत व्याकरण सातवीं शती भेदानाप्नोति। - काव्यालङ्कार टीका नमिसाधु, २/१२।
से पूर्व का नहीं है। साथ ही उनमें प्रत्येक प्राकृत के लिये अलग-अलग अर्थात् जो संसार के प्राणियों का व्याकरण आदि के लिये भी मॉडल अपनाये गये हैं। वररुचि के लिये शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत सुबोध है और पूर्व में निर्मित होने से (प्राक्कृत) सभी भाषाओं की है, जबकि हेमचन्द्र के लिये शौरसेनी की प्रकृति (महाराष्ट्री) प्राकृत रचना का आधार है वह तो मेघ से निर्मुक्त जल की तरह सहज है, है, अत: प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल है। अन्यथा हेमचन्द्र के
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