Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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चतीन्द्रसूरि स्मारग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
अन्य मूलाचार में न केवल शताधिक नियुक्ति-गाथाएँ उदधृत हैं, अपितु उसमें अस्वाध्याय-काल में नियुक्तियों के अध्ययन न करने का निर्देश भी है। इससे फलित होता है कि नियुक्तियों की रचना मूलाचार से पूर्व हो चुकी थी । ७४ यदि मूलाचार को छठी सदी की रचना भी मानें तो उसके पूर्व नियुक्तियों का अस्तित्व तो मानना ही होगा, साथ ही यह भी मानना होगा कि नियुक्तियाँ मूलरूप में अविभक्त धारा में निर्मित हुई थीं। चूँकि परम्परा-भेद तो शिवभूति के पश्चात् उनके शिष्यों कौडिन्य और कोट्टवीर से हुआ है। अतः नियुक्तियाँ शिवभूति के शिष्य भद्रगुप्त की रचना मानी जा सकती है, क्योंकि वे न केवल अविभक्त धारा में हुए अपितु लगभग उसीकाल में अर्थात् विक्रम की तीसरी शती में हुए हैं, जो कि नियुक्ति का रचना काल है।
२. पुनः आचार्य भद्रगुप्त को उत्तर भारत की अचेल - परम्परा का पूर्वपुरुष दो-तीन आधारों पर माना जा सकता है। प्रथम तो कल्पसूत्र की पट्टावली के अनुसार आर्यभद्रगुप्त आर्यशिवभूति के शिष्य हैं और ये शिवभूति वही हैं जिनका आर्यकृष्ण से मुनि की उपाधि (वस्त्र पात्र) के प्रश्न पर विवाद हुआ था और जिन्होंने अचेलता का पक्ष लिया था। कल्पसूत्र स्थविरावली में आर्य कृष्ण और आर्यभद्र दोनों को आर्य शिवभूति का शिष्य कहा है। चूँकि आर्यभद्र ही ऐसे व्यक्ति हैं - जिन्हें आर्यवग्र एवं आर्यरक्षित के शिक्षक के रूप में श्वेताम्बरों में और शिवभूति के शिष्य के रूप में यापनीय परम्परा में मान्यता मिली है। पुनः आर्यशिवभूति के शिष्य होने के कारण आर्यभद्र भी अचलता के पक्षधर होंगे और इसलिए उनकी कृतियाँ यापनीय परम्परा में मान्य रही होंगी। ३. विदिशा से जो एक अभिलेख प्राप्त हुआ है उसमें भद्रान्वय एवं आर्यकुल का उल्लेख है
शमदमवान चीकरत् (11) आचार्य भद्रान्वयभूषणस्य शिष्यो सावाकुलोद्गतस्य (1) आचार्य गोश (जै.शि.सं. २, पृ० ५७)
सम्भावना यही है कि भद्रान्वय एवं आर्यकुल का विकास इन्हीं आर्यभद्र से हुआ हो । यहाँ के अन्य अभिलेखों में मुनि का 'पाणितलभोजी' ऐसा विशेषण होने से यह माना जा सकता है कि यह केन्द्र अचेल धारा का था अपने पूर्वज आचार्य भद्र की कृतियों होने के कारण नियुक्तियां यापनीयों में भी मान्य रही होगी। ओषनियुक्ति या पिण्डनियुक्ति में भी जो कि परवर्ती एवं विकसित हैं, दो चार प्रसंगों के अतिरिक्त कहीं भी वस्त्र-पत्र का विशेष उल्लेख नहीं मिलता है। यह इस तथ्य का भी सूचक है कि नियुक्तियों के काल तक वस्त्र - पात्र आ का समर्थन उस रूप में नहीं किया जाता था, जिस रूप में परवर्ती श्वेताम्बर - सम्प्रदाय में हुआ। वस्त्र पात्र के सम्बन्ध में नियुक्ति की मान्यता भगवती आराधना एवं मूलाधार से अधिक दूर नहीं है। आचारांगनियुक्ति में आचारांग के वस्त्रैषणा अध्ययन की नियुक्ति केवल एक गाथा में समाप्त हो गयी है और पारंषणा पर कोई नियुक्ति गाया ही नहीं है। अतः वस्त्र पात्र के सम्बन्ध में नियुक्तियों के कर्ता आर्यभद्र की स्थिति भी मथुरा के साधु- -साध्वियों के अंकन से अधिक भिन्न नहीं है। अतः नियुक्तिकार के रूप में आर्य भद्रगुप्त को स्वीकार करने में नियुक्तियों
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में वस्त्र - पात्र के उल्लेख अधिक बाधक नहीं हैं।
४. चूँकि आर्यभद्र के निर्यापक आर्यरक्षित माने जाते हैं। नियुक्ति और चूर्णि दोनों से ही यह सिद्ध है कि आर्यरक्षित भी अचलता के ही पक्षधर थे और उन्होंने अपने पिता को, जो प्रारम्भ में अचेल - दीक्षा ग्रहण करना नहीं चाहते थे, योजनापूर्वक अचेल बना ही दिया था। चूर्णि में जो कटिपट्टक की बात है, वह तो श्वेताम्बर पक्ष की पुष्टि हेतु डाली गयी प्रतीत होती है।
भद्रगुप्त को नियुक्ति का कर्ता मानने के सम्बन्ध में निम्न कठिनाइयाँ
है
१. आवश्यकनियुक्ति एवं आवश्यकचूर्णि के उल्लेखों के अनुसार आर्यरक्षित भद्रगुप्त के निर्यापक (समाधिमरण कराने वाले) माने गये। आवश्यकनिर्मुक्ति न केवल आर्यरक्षित की विस्तार से चर्चा करती है. अपितु उनका आदरपूर्वक स्मरण भी करती है। भद्रगुप्त आर्यरक्षित से दीक्षा में ज्येष्ठ हैं, ऐसी स्थिति में उनके द्वारा रचित नियुक्तियों में आर्यरक्षित का उल्लेख इतने विस्तार से एवं इतने आदरपूर्वक नहीं आना चाहिए। यद्यपि परवर्ती उल्लेख एकमत से यह मानते हैं कि आर्यभद्रगुप्त की निर्यापना आर्यरक्षित ने करवायी, किन्तु मूल गाथा को देखने पर इस मान्यता के बारे में किसी को सन्देह भी हो सकता है. मूल गाया निम्नानुसार है
"निजवण महगुते वीसुं पडणं च तस्स पुव्वगवं । पव्यायिओ य भाया रक्खिअखमणेहिं जाओ अ" ।। आवश्यकनियुक्ति, ७७६ /
यहाँ "निज्जवण भद्दगुत्ते" में यदि 'भद्दगुत्ते' को आर्ष प्रयोग मानकर कोई प्रथमाविभक्ति में समझे तो इस गाथा के प्रथम दो चरणों का अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है— भद्रगुप्त ने आर्यरक्षित की निर्यापना की और उनसे समस्त पूर्वगत साहित्य का अध्ययन किया।
गाथा के उपर्युक्त अर्थ को स्वीकार करने पर तो यह माना जा सकता है कि नियुक्तियों में आर्यरक्षित का जो बहुमान पूर्वक उल्लेख है. वह अप्रासंगिक नहीं है क्योंकि जिस व्यक्ति ने आर्थरक्षित की निर्यापना करवायी हो और जिनसे पूर्वो का अध्ययन किया हो, वह उनका अपनी कृति में सम्मानपूर्वक उल्लेख करेगा ही । किन्तु गाथा का इस दृष्टि से किया गया अर्थ चूर्णि में प्रस्तुत कथानकों के साथ एवं निर्बुक्ति गाथाओं के पूर्वापर प्रसंग को देखते हुए किसी भी प्रकार संगत नहीं माना जा सकता है। चूर्णि में तो यही कहा गया है कि आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना करवायी और आर्यवज्र से पूर्वसाहित्य का अध्ययन किया। यहाँ दूसरे चरण में प्रयुक्त "तस्स" शब्द का सम्बन्ध आर्यवज्र से है, जिनका उल्लेख पूर्व गाथाओं में किया गया है। साथ ही यहाँ 'भहगुते' में सप्तमी का प्रयोग है, जो एक कार्य को समाप्त कर दूसरा कार्य प्रारम्भ करने की स्थिति में किया जाता है। यहाँ सम्पूर्ण गाथा का अर्थ इस प्रकार होगा - आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना (समाधिमरण) करवाने के पश्चात् (आर्यवज्र से) पूर्वों का समस्त अध्ययन किया है और अपने भाई और पिता को दीक्षित किया। यदि आर्यरक्षित भद्रगुप्त के निर्यापक हैं और वे
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