Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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वतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
की गयी हैं क्योंकि इन गाथाओं में उनके उत्पत्ति-नगरों एवं उत्पत्ति समय दोनों की संख्या आठ-आठ है। इस प्रकार इनमें बोटिकों के उत्पत्तिनगर और समय का भी उल्लेख है— आश्चर्य यह है कि -आश्चर्य यह है कि ये गाथाएँ सप्त निह्नवों की चर्चा के बाद दी गईं जबकि बोटिकों की उत्पत्ति का उल्लेख तो इसके भी बाद में है और मात्रा एक गाथा में है। अत: ये गाथाएँ किसी भी स्थिति में नियुक्ति की गाथाएँ नहीं मानी जा सकती हैं।
पुनः यदि हम बोटिक -निह्नव सम्बन्धी गाथाओं को भी नियुक्ति गाथाएँ मान लें तो भी नियुक्ति के रचनाकाल की अपर सीमा को वीरनिर्वाण संवत् ६१० अर्थात् विक्रम की तीसरी शती के पूर्वार्ध से आगे नहीं ले जाया जा सकता है, क्योंकि इसके बाद के कोई उल्लेख हमें नियुक्तियों में नहीं मिले। यदि नियुक्ति नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम की छठी सदी उत्तरार्द्ध) की रचनाएँ होतीं तो उनमें विक्रम की तीसरी सदी से लेकर छठी सदी के बीच के किसी न किसी आचार्य एवं घटना का उल्लेख भी, चाहे संकेत रूप में ही क्यों न हो, अवश्य होता । अन्य कुछ नहीं तो माथुरी एवं वलभी वाचना के उल्लेख तो अवश्य ही होते, क्योंकि नैमित्तिक भद्रबाहु तो उनके बाद ही हुए हैं। बलभी बाचना के आयोजक देवर्द्धिगणि के तो वे कनिष्ठ समकालिक हैं, अतः यदि वे नियुक्ति के कर्त्ता होते तो वलभी वाचना का उल्लेख नियुक्तियों में अवश्य करते ।
३. यदि नियुक्तियाँ नैमित्तिक भद्रबाहु (छठी सदी उत्तरार्द्ध) की कृति होती तो उसमें गुणस्थान की अवधारणा अवश्य ही पाई जाती। छठी सदी के उत्तरार्द्ध में न की अवधारणा विकसित हो गई। थी और उस काल में लिखी गई कृतियों में प्रायः गुणस्थान का उल्लेख मिलता है किन्तु जहाँ तक मुझे ज्ञात है, निर्युक्तियों में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा का कहीं भी उल्लेख नहीं है। आवश्यक नियुक्ति की जिन दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नामों का उल्लेख मिलता है, " वे मूलतः नियुक्ति-गाथाएं नहीं हैं। आवश्यक मूल पाठ में चौदह भूतग्रामों (जीव-जातियों) का ही उल्लेख है, गुणस्थानों का नहीं। अतः नियुक्ति तो भूतग्रामों की ही लिखी गयी। भूतग्रामों के विवरण के बाद दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नाम दिये गये हैं। यद्यपि यहाँ गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं है। ये दोनों गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि हरिभद्र (आठवीं सदी) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में "अधुनामुनैव गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकार : " कहकर इन दोनों गाथाओं को संग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया है।" अतः गुणस्थान सिद्धान्त के स्थिर होने के पश्चात् संग्रहणी की ये गाथाएँ नियुक्ति में डाल दी गई हैं। नियुक्तियों में गुणस्थान की अवधारणा की अनुपस्थिति इस तथ्य का प्रमाण है कि उनकी रचना तीसरी-चौथी शती के पूर्व हुई थी। इसका तात्पर्य यह है कि नियुक्तियाँ नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना नहीं है।
४. साथ ही हम देखते हैं कि आचारांगनिर्युक्ति में आध्यात्मिक विकास की उन्हीं दस अवस्थाओं का विवेचन है जो हमें सत्त्वार्थसूत्र में भी मिलती है" और जिनसे आगे चलकर गुणस्थान की अवधारणा
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विकसित हुई है तत्त्वार्थसूत्र तथा आचारांगनियुक्ति दोनों ही विकसित गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में सर्वथा मौन हैं, जिससे यह फलित होता है कि निर्बुक्तियों का रचनाकाल तत्त्वार्थसूत्र के सम-सामयिक (अर्थात् विक्रम की तीसरी चौथी सदी) है अतः वे छठी शती के उत्तरार्ध में होने वाले नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना तो किसी स्थिति में नहीं हो सकतीं। यदि वे उनकी कृतियाँ होती तो उनमें आध्यात्मिक विकास की इन दस अवस्थाओं के चित्रण के स्थान पर चौदह गुणस्थानों का भी चित्रण होता।
५. नियुक्ति गाथाओं का नियुक्ति-गाथा के रूप में मूलाचार में उल्लेख तथा अस्वाध्याय-काल में भी उनके अध्ययन का निर्देश यही सिद्ध करता है कि नियुक्तियों का अस्तित्व मूलाचार की रचना और यापनीय-सम्प्रदाय के अस्तित्व में आने के पूर्व का था। यह सुनिश्चित है कि यापनीय-सम्प्रदाय ५ वीं सदी के अन्त तक अस्तित्व में आ गया था। अतः नियुक्तियाँ ५ वीं सदी से पूर्व की रचना होनी चाहिएऐसी स्थिति में भी वे नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम की छठी सदी उत्तरार्द्ध) की कृति नहीं मानी जा सकती हैं।
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पुनः नियुक्ति का उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द ने भी आवश्यक शब्द की नियुक्ति करते हुए नियमसार गाथा १४२ में किया है। आश्चर्य यह है कि यह गाथा मूलाचार के षडावश्यक नामक अधिकार में भी यथावत् मिलती है। इसमें आवश्यक शब्द की नियुक्ति की गई है। इससे भी यही फलित होता है कि नियुक्तियाँ कम से कम मूलाचार और नियमसार की रचना के पूर्व अर्थात् छठी शती के पूर्व अस्तित्व में आ गई थीं।
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६. नियुक्तियों के कर्ता नैमित्तिक भद्रबाहु नहीं हो सकते, क्योंकि आचार्य मल्लवादी (लगभग चौथी पांचवीं शती) ने अपने अन्य नयचक्र में नियुक्तिगाथा का उद्धरण दिया है— नियुक्ति लक्षणमाह- "वत्वूर्ण संक्रमणं होति अवत्थूणये समभिरूडे"। इससे यही सिद्ध होता है कि वलभी वाचना के पूर्व नियुक्तियों की रचना हो चुकी थी । अतः उनके रचयिता नैमित्तिक भद्रबाहु न होकर या तो काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त है या फिर गीतमगोत्रीय आर्यभद्र है।
७. पुनः वलभी वाचना के आगमों के गद्यभाग में नियुक्तियों और संग्रहणी की अनेक गाथाएं मिलती है, जैसे ज्ञाताधर्मकथा में मल्ली अध्ययन में जो तीर्थङ्कर-नाम-कर्म-बन्ध सम्बन्धी २० बोलों की गाथा है, वह मूलतः आवश्यकनियुक्ति (१७९-१८१ ) की गाथा है। इससे भी यही फलित होता है कि वलभी वाचना के समय निर्बुक्तियों और संग्रहणीसूत्रों से अनेक गाथाएँ आगमों में डाली गई हैं। अतः नियुक्तियाँ और संग्रहणियाँ बलभी वाचना के पूर्व की हैं अतः ये नैमितिक भद्रबाहु के स्थान पर लगभग तीसरी-चौथी शती के किसी अन्य भद्र नामक आचार्य की कृतियाँ हैं ।
८. नियुक्तियों की सत्ता वलभी वाचना के पूर्व थी, तभी तो नन्दीसूत्र में आगमों की नियुक्तियों का उल्लेख है। पुनः अगस्त्यसिंह की दशवैकालिकचूर्णि के उपलब्ध एवं प्रकाशित हो जाने पर यह बात -पुष्ट हो जाती है कि आगमिक व्याख्या के रूप में नियुक्तियाँ बलभी १७५]
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