Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्रसरिस्मारकग्रन्थ -- जैन आगम एवं साहित्य ___ यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृतों में तीन प्रकार के शब्दरूप से और भाई सुदीपजी से साग्रह निवेदन करूँगा की वे आचाराङ्ग, मिलते हैं- तद्भव, तत्सम और देशज। देशज शब्द वे हैं जो किसी ऋषिभाषित, सूत्रकृताङ्ग आदि को किन्हीं भी प्राचीन प्रतियों में 'द' देश विशेष में किसी विशेष अर्थ में प्रयुक्त हैं। इनके अर्थ की व्याख्या श्रुति प्रधान पाठ दिखला दें। प्राचीन प्रतियों में जो पाठ मिल रहे हैं, के लिये व्याकरण की कोई आवश्यकता नहीं होती है। तद्भव शब्द वे अर्धमागधी या आर्ष प्राकृत के हैं, न कि शौरसेनी के। यह एक वे हैं जो संस्कृत शब्दों से निर्मित हैं जबकि संस्कृत के समान शब्द अलग बात है कि कुछ शब्दरूप आर्ष अर्धमागधी और शौरसेनी में तत्सम हैं। संस्कृत व्याकरण में दो शब्द प्रसिद्ध हैं- प्रकृति और समान हैं। प्रत्यय। इनमें मूल शब्दरूप को प्रकृति कहा जाता है। मूल शब्द से वस्तुतः इन प्राचीन प्रतियों में न तो 'द' श्रुति देखी जाती है जो शब्दरूप बना है वह तद्भव है। प्राकृत-व्याकरण संस्कृत शब्द और न "न" के स्थान पर "ण' की प्रवृत्ति देखी जाती है, जिसे से प्राकृत का तद्भव शब्दरूप कैसे बना है, इसकी व्याख्या करता व्याकरण में शौरसेनी की विशेषता कहा जाता है। सत्य तो यह है है। अत: यहाँ संस्कृत को प्रकृति कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि कि अर्धमागधी आगमों का ही शौरसेनी रूपान्तरण आहैन कि शौरसेनी तद्भव शब्दों के सन्दर्भ में संस्कृत शब्द को आदर्श मानकर या मॉडल आगमों का अर्धमागधी रूपान्तरण। यह सत्य है कि अर्धमागधी मानकर यह व्याकरण लिखा गया है। अत: प्रकृति का अर्थ आदर्श आगमों पर अपितु शौरसेनी आगमतुल्य कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों पर या मॉडल है। संस्कृत शब्द रूप को मॉडल/आदर्श मानना इसलिये भी महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का स्पष्ट प्रभाव है जिसे हम पूर्व में सिद्ध आवश्यक था कि प्राकृत व्याकरण संस्कृत के जानकार विद्वानों को कर चुके हैं। दृष्टि में रखकर या उनके लिये ही लिखे गये थे। जब डॉ. सुदीपजी क्या पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व अर्धमागधी भाषा एवं श्वेताम्बर अर्धमागधी शौरसेनी के सन्दर्भ में 'प्रकृति: संस्कृतम्' का अर्थ मॉडल या आदर्श आगमों का अस्तित्व नहीं था? करते हैं तो उन्हें मागधी, पैशाची आदि के सन्दर्भ में प्रकृतिः शौरसेनी डॉ.सुदीपजी द्वारा टॉटियाजी के नाम से उद्धृत यह कथन कि का अर्थ भी यही करना चाहिए कि शौरसेनी को मॉडल या आदर्श १५०० वर्ष पहले अर्धमागधी भाषा का अस्तित्व ही नहीं था' पूर्णत: मानकर इनका व्याकरण लिखा गया है। इससे यह सिद्ध नहीं होता भ्रान्त है। आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ऋषिभाषित जैसे आगमों को पाश्चात्य है कि मागधी आदि प्राकृतों की उत्पत्ति शौरसेनी से हुई है। हेमचन्द्र विद्वानों ने एक स्वर से ई.पू. तीसरी-चौथी शताब्दी या उससे भी पहले ने महाराष्ट्री प्राकृत को आधार मानकर शौरसेनी, मागधी आदि प्राकृतों का माना है। क्या उस समय से आगम अर्धमागधी भाषा में निबद्ध को समझाया है। इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि महाराष्ट्री प्राचीन न होकर शौरसेनी में निबद्ध थे। ज्ञातव्य है कि 'द' श्रुति प्रधान और है या महाराष्ट्री से मागधी, शौरसेनी आदि उत्पन्न हुई।
'ण' कार की प्रवृत्ति वाली शौरसेनी का जन्म तो उस समय हुआ ही
नहीं था, अन्यथा अशोक के अभिलेखों में और मथुरा (जो शौरसेनी प्राचीन कौन? अर्धमागधी या शौरसेनी
की जन्मभूमि है) के जैन अभिलेखों में कहीं तो इस शौरसेनी के वैशिष्ट्य इसी सन्दर्भ में टॉटिया जी के नाम से यह भी प्रतिपादित किया वाले शब्द रूप उपलब्ध होने चाहिए थे? क्या शौरसेनी प्राकृत में गया है कि “यदि वर्तमान अर्धमागधी आगम-साहित्य को ही मूल निबद्ध ऐसा एक भी ग्रन्थ है जो ई०पू० में रचा गया हो? सत्य तो आगम-साहित्य मानने पर जोर देंगे तो इस अर्धमागधी भाषा का आज यह है कि भास (ईसा की दूसरी शती) के नाटकों के अतिरिक्त ईसा से १५०० वर्ष पहले अस्तित्व ही नहीं होने से, इस स्थिति में हमें की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पूर्व शौरसेनी में निबद्ध एक भी ग्रन्थ अपने आगम साहित्य को ही ५०० ई. के परवर्ती मानना पड़ेगा।" नहीं था। जबकि मागधी के अभिलेख और अर्धमागधी के आगम ई०पू० ज्ञातव्य है कि यहाँ भी महाराष्ट्री और अर्धमागधी के अन्तर को न तीसरी शती से उपलब्ध हो रहे हैं। पुनः यदि ये लोग जिसे अर्धमागधी समझते हुए एक भ्रान्ति को खड़ा किया गया है। सर्वप्रथम तो यह कह रहे हैं उसे महाराष्ट्री भी मान लें तो उसके भी ग्रन्थ ईसा की समझ लेना चाहिए कि आगमों के प्राचीन अर्धमागधी के 'त' श्रुति प्रथम शताब्दी से उपलब्ध होते हैं। सातवाहन नरेश हाल की गाथा प्रधान पाठ चूर्णियों और अनेक प्राचीन प्रतियों में आज भी मिल रहे सप्तशती महाराष्ट्री प्राकृत का प्राचीन ग्रन्थ है, जो ई०पू० प्रथम शती हैं। उससे निःसन्देह यह सिद्ध होता है कि मूल अर्धमागधी 'त' श्रुति से ईसा की प्रथम शती के मध्य रचित है। यह एक संकलन ग्रन्थ प्रधान थी और उसमें लोप की प्रवृत्ति नगण्य ही थी और यह अर्धमागधी है जिसमें अनेक ग्रन्थों से गाथाएँ संकलित की गई हैं। इसका तात्पर्य भाषा शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्राचीन भी है। यदि श्वेताम्बर आगम यह हुआ कि इसके पूर्व भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रन्थ रचे गये थे। शौरसेनी से महाराष्ट्री में जिसे दिगम्बर विद्वान् भ्रान्ति से अर्धमागधी कालिदास के नाटक, जिनमें शौरसेनी का प्राचीनतम रूप मिलता कह रहे हैं, बदले गये तो फिर उनकी प्राचीन प्रतियों में 'त' श्रुति है, भी ईसा की चतुर्थ शताब्दी के बाद के ही हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ के स्थान पर 'द' श्रुति के पाठ क्यों उपलब्ध नहीं होते हैं जो शौरसेनी स्पष्ट रूप से न केवल अर्धमागधी आगमों से, अपितु परवर्ती 'य' की विशेषता है। इस प्रसङ्ग में डॉ. टॉटियाजी के नाम से यह भी श्रुति प्रधान महाराष्ट्री से भी प्रभावित हैं, किसी भी स्थिति में ईसा कहा गया है कि आज भी आचाराङ्गसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में की पाँचवीं, छठी शताब्दी के पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं। षट्खण्डागम शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है। मैं आदरणीय टॉटियाजी और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान, सप्तभंगी आदि लगभग ५ वी
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