Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ को अनित्य भावना से विचारते हुए राजर्द्धि का परित्याग कर दिया और वह क्षेमंकर जिनवर के निकट प्रव्रजित हो गया। तब उसकी प्रकृतिभद्र रानी प्रभंकरा भी मृदुता और ऋजुता से सम्पन्न होकर चांद्रायण और प्रौषध व्रत करके आर्या सुस्थिता के समीप दीक्षित हो गई। (इक्कीसवाँ केतुमतीलम्भ)
१४. ह्रीमती - सिंहपुर नगर के राजा सिंहसेन की पत्नी का नाम रामकृष्णा था। उसकी माता आर्या हीमती लोकसमादर प्राप्त साध्वी थीं। वे अपनी अनेक शिष्याओं के परिवार की अनुशासिका थीं। जब उनके जामाता राजा सिंहसेन की मृत्यु हो गई, तब उन्होंने अपनी पतिहीना पुत्री को जिन शब्दों में अनुशासित किया, वह अनुशासन जीव को उदात्त बनाने की दृष्टि से सदा मननीय है । हीमती ने कहा - " पुत्री ! धर्म के विषय में कभी प्रमाद न करो । मानव जीवन विनिपातों से भरा हुआ है- विनश्वर है । प्रियजन का संयोग अवश्य ही वियोगान्त है। ऋद्धियाँ सन्ध्याकालीन रंगीन मेघ की भाँति स्थिर ( देर तक टिकने वाली) नहीं हैं। देवलोकवासी देव भी जीवन मोह और विषय भोग से तृप्ति नहीं प्राप्त करते, जिनकी आयु पल्योपम और सागरोपम के बराबर सुदीर्घकालीन होती है, जो अपनी मति और रुचि के अनुसार मनोहर शरीर का विकुर्वण (प्रतिरचना) कर सकते हैं, सर्वत्र अप्रतिहत गति से आ जा सकते हैं और फिर विनय-प्रणत यथायोग्य आदेशों को पूरा करने वाली, सदा अनुकूल रहने वाली तथा सकल कला प्रसंगों की मर्मज्ञा देवियाँ बड़ी निपुणता से जिनकी
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जैन आगम एवं साहित्य
सेवा करती हैं। तो फिर मनुष्यों की क्या बिसात, जिनका शरीर केले के थम्भ और बाँस की तरह निस्सार होता है, विघ्नबहुल और अल्पजीवी होता है, जिनके वैभव को सामान्यतया राजा, चोर, आग और पानी का भय बराबर बना रहता है। साथ ही, जिनकी शारीरिक रचना पुरानी गाड़ी की नाईं ढीले जोड़ों वाली होती है, ऐसे पत्रचंचल शोभा वाले मनुष्य संकल्प-विकल्प के जल से परिपूर्ण मनोरथ - सागर के उस पार कैसे जा सकेंगे? विगतप्राण स्थावर जंगम जीवों के शरीरांग कार्य करने में असमर्थ होते हैं ऐसी स्थिति में मनुष्यभव प्राप्त करना प्रायश्चित के समान
जाता है। इस प्रकार का शरीर स्वभावतः अशुचि और परित्याज्य होता है। तो, शरीर जब तक निरातंक (नीरोग) है, तप और संयम के साधन की सहायता से अपने को परलोकहित के लिए अर्पित कर दो।"
इस प्रकार उपदेश देती हुई आर्या ह्रीमती के पैरों पर रानी रामकृष्णा गिर पड़ी और बोली “आपका कथन सुभाषित की तरह तथ्यपूर्ण है। मैं आपके उपदेश को सफल करूँगी। यह कहकर रानी ने गृहवास छोड़कर प्रव्रज्या ले ली और वह श्रमणी हो गई । ( सोलहवाँ बालचंद्रालम्भ ) ।
इस तरह साध्वियों के संबंध में उपर्युक्त आकलन से स्पष्ट है कि तत्कालीन सामाजिक जीवन को धर्म, दर्शन और आचार की दृष्टि से उन्नत करने तथा लोकजीवन को सही दिशा देने में जैन आर्याओं के योगदान का ततोऽधिक सांस्कृतिक मूल्य है।
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