Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ- जैन आगम एवं साहित्य
का बहुमानपूर्वक नामोल्लेख किया है इनके लिये भाष्यसुधाम्भोधि, भाष्यपीयूषपंथोधि, भगवान् भाष्यकार दुःषमान्धकारनिमग्नजिनवचनप्रदीपप्रतिम दलितकुवादिप्रवाद, प्रशस्य भाष्यशस्य काश्यपीकल्प, त्रिभुवनजनप्रथितवचनोप निषद्वेदी, सन्देहसन्दोहशैलश्रृंगभंगदम्भोलि आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है।
आचार्य जिनभद्र के समय के विषय में मुनि श्री जिनविजयजी का मत है कि उनकी मुख्य कृति विशेषावश्यकभाष्य की जैसलमेर स्थित प्रति के अंत में मिलने वाली दो गाथाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस भाष्य की रचना विक्रम संवत् ६६६ में हुई । वे गाथाएँ इस प्रकार हैं
पच सता इगतीसा सगणिवकालस्स वट्टमाणस्स । तो चेत्तपुण्णिमाए बुधदिण सातिंमि णक्खत्ते ॥ रज्जेणु पालणपरेसी (लाइ ) च्चम्मि णरवरिन्दम्मि । वलभीणगरीए इमं महवि... मि जिणभणे ॥
मुनि श्री जिनविजयजी ने इन गाथाओं का अर्थ इस प्रकार है - शक संवत् ५३१ (विक्रम संवत् ६६६) में वलभी में जिस समय शीलादित्य राज्य करता था उस समय चैत्र शुक्ला पूर्णिमा, बुधवार और स्वाति नक्षत्र में विशेषावश्यकभाष्य की रचना पूर्ण हुई।
पं. श्री दलसुख मालवणिया इस मत का विरोध करते हैं। उनकी मान्यता है कि उपर्युक्त मत मूल गाथाओं से फलित नहीं होता। उनके मतानुसार इन गाथाओं में रचनाविषयक कोई उल्लेख नहीं है। वे कहते हैं कि खंडित अक्षरों को हम यदि किसी मंदिर का नाम मान लें, तो इन दोनों गाथाओं में कोई क्रियापद नहीं रह जाता। ऐसी अवस्था में उसकी शक संवत् ५३१ में रचना हुई, ऐसी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। अधिक संभव यह है कि वह प्रति उस समय लिखी जाकर उस मंदिर में रखी गई हो। इस मत की पुष्टि के लिए कुछ प्रमाण भी दिए जा सकते हैं
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१. ये गाथाएँ केवल जैसलमेर की प्रति में ही मिलती हैं, अन्य किसी प्रति में नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि ये गाथाएँ मूलभाष्य की न होकर प्रति लिखी जाने तथा उक्त मंदिर में रखी जाने के समय की सूचक है। जैसलमेर की प्रति मंदिर में रखी गई प्रति के आधार पर लिखी गई होगी।
२. यदि इन गाथाओं को रचनाकालसूचक माना जाए, तो
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इनकी रचना आचार्य जिनभद्र ने की है, यह भी मानना ही पड़ेगा | ऐसी स्थिति में इनकी टीका भी मिलनी चाहिए, परन्तु बात ऐसी नहीं है । आचार्य जिनभद्र द्वारा प्रारंभ में की गई विशेषावश्यकभाष्य की सर्वप्रथम टीका में अथवा कोट्याचार्य और मलधारी हेमचन्द्र की टीकाओं में इन गाथाओं की टीका नहीं मिलती। इतना ही नहीं इन गाथाओं के अस्तित्व की सूचना तक नहीं है।
इन प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि ये गाथाएँ आचार्य जिनभद्र ने न लिखी हों अपितु उस प्रति की नकल करने-कराने वालों ने लिखी हों। ऐसी स्थिति में यह भी स्वतः सिद्ध है कि इन गाथाओं में निर्दिष्ट समय रचनासमय नहीं अपितु प्रतिलेखनसमय है। कोट्याचार्य के उल्लेख से यह भी निश्चित है कि आचार्य जिनभद्र की अंतिम कृति विशेषाश्यकभाष्य है । इस भाष्य की स्वोपज्ञ टीका उनकी मृत्यु हो जाने के कारण पूर्ण न हो सकी । "
यदि विशेषावश्यकभाष्य की जैसलमेर स्थित उक्त प्रति का लेखन समय तक संवत् ५३१ अर्थात् विक्रम संवत् ६६६ माना जाए, तो विशेषावश्यकभाष्य का रचना समय इससे पूर्व ही मानना पड़ेगा। यह भी हम जानते हैं कि विशेषावश्यक भाष्य आचार्य जिनभद्र की अंतिम कृति थी और उसकी स्वोपज्ञ टीका भी उनकी मृत्यु के कारण अपूर्ण रही, ऐसी दशा में यदि यह माना जाए कि जिनभद्र का उत्तरकाल विक्रम संवत् ६५०-६६० के आसपास रहा होगा, तो अनुचित नहीं है ।
आचार्य जिनभद्र ने निम्नलिखित ग्रंथों की रचना की है। विशेषावश्यकभाष्य ( प्राकृत पद्य ) २. विशेषावश्यक भाष्यस्वोपज्ञवृत्ति (अपूर्ण संस्कृत - गद्य) ३. बृहत्संग्रहणी ( प्राकृत पद्य) ४. बृहत्क्षेत्रसमास ( प्राकृत-पद्य ५. विशेषणवती (प्राकृत पद्य) ६. जीतकल्प ( प्राकृत पद्य) ७. जीत कल्पभाष्य (प्राकृत पद्य) ८. अनुयोगद्वारचूर्णि (प्राकृतगद्य ) ९ ९. ध्यानशतक ( प्राकृत पद्य) । अन्तिम ग्रन्थ अर्थात् ध्यानशतक के कर्तृत्व के विषय में अभी विद्वानों को संदेह है। संघदासगणि
संघदासगण भी भाष्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके दो भाष्य उपलब्ध है- बृहत्कल्प- लघुभाष्य और पंचकल्प महाभाष्य । मुनि श्री पुण्यविजयजी के मतानुसार संघदासगणि नाम के दो आचार्य हुए हैं एक वसुदेवहिंडि प्रथम खण्ड के प्रणेता और ఏడురూపాదరసాని
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