Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ की तरह चमकने वाला लावण्य या लुनाई कुछ और ही होती है। जिस प्रकार लुनाई प्रत्यक्ष न होकर प्रतीयमान होती है, उसी प्रकार ध्वनि या व्यंग्य की प्रतीति होती है-
प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् । यत्तत्प्रसिद्धावयवतिरिक्तं विभाति लावण्यमिवाङ्गनासु । ( ध्वन्यालोकः कारिका सं. ४ )
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ध्वनिवादी साहित्यशास्त्रियों ने अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य ध्वनि के उदाहरण में गाहासत्तसई की इस गाथा को बहुशः संदर्भित किया है धम्म वीसत्थो सो सुणओ अज्ज मारिओ तेण । गोलानईकच्छकुडंगवासिणा दरिअसीहेण ।।
( शतक २- गाथा ७५ )
इस गाथा में किसी अभिसारिका नायिका के एकान्त संकेत स्थल, गोदावरी नदी के तटवर्ती कुंज में फूल चुनने के लिए पहुँचे हुए विघ्नस्वरूप किसी धार्मिक से वह नायिका कहती है। कि हे धार्मिक ! आप गोदावरी नदी के तटवर्ती कुंज में निर्भय भाव से भ्रमण करें, क्योंकि आज कुंज में रहने वाले मदमस्त सिंह ने आपको तंग करने वाले कुत्ते को मार डाला है। नायिका के इस कथन में कुत्ते से डरने वाले धार्मिक के लिए सिंह के मारे जाने का भय उत्पन्न करके कुंज में उसके भ्रमण का निषेध किया गया है। यहाँ विधिरूप वाच्य में प्रतिषेध रूप व्यंग्य का विनियोग हुआ है। इस गाथा में वाच्य या मुख्य अर्थ से व्यंग्य की सर्वथा भिन्नता के कारण ही वाक्यगत अत्यंततिरस्कृत वाच्य ध्वनि की योजना हुई है।
गाहा सत्तसई में ही अत्यंततिरस्कृतवाच्य ध्वनि का एक और उदाहरण इस प्रकार है-
धरिणीए महाणसकम्मलग्नमसिमलिइएण हत्थेण । चित्तं मुहं हसिज्जइ चंदावत्थं गअं पइणा ।। (तत्रैव: शतक - १, गाथा सं. १३ )
इस गाथा में एक ऐसी नायिका का चित्रण है, जिसके हाथ रसोई के काम में लगे रहने के कारण मलिन हो गये हैं। उस नायिका ने उन्हीं मलिन कालिख लगे हाथों से अपने मुँह को छुआ है, जिससे उसके मुँह में कालिख लग गई है कालिख लगा तुम्हारा मुँह लांछन युक्त चंद्रमा के समान प्रतीत होता है । यहाँ विरूपता भी अलंकरण हो गई है, क्योंकि जिसका जो उचित
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कार्य है, उसके करने में विकृति प्रकृति बन जाती है। कुलस्त्रियों के लिए गृहकार्य से विमुख होना ही अनुचित है, यही यहाँ ध्वनि है, जो वाच्यार्थ से सर्वथा भिन्न या तिरस्कृत होने के कारण अत्यंततिरस्कृतवाच्य ध्वनि है। इसे वस्तु से वस्तुध्वनि या वाच्यार्थ का रूपान्तर होने से अर्थान्तर-संक्रमितवाच्यध्वनि भी कह सकते हैं।
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घण्टा बजाने के बाद उससे निकली रनरनाहटी की जो सूक्ष्म आवाज गूँजती है, वही ध्वनि है। इसी प्रकार काव्य की ध्वनि वाच्य अर्थ से निकले भिन्न अर्थ में रहती है, जिसकी गूँज की प्रतीति सहृदयों को होती हैं। पाँचवीं शती के कूटस्थ प्राकृत महाकवि प्रवरसेन -प्रणीत सेतुबन्ध महाकाव्य के सागर वर्णन से संबद्ध इस गाथा में अलंकार से अनुरणित वस्तुध्वनि की मनोज्ञता द्रष्टव्य है-
उक्खदुमं व सेलं हिमहअकमलाअरं व लच्छिविमुक्कं । पीअमदूरं व चसअं बहुलपओसं व मुद्धचंदविरहिअं ॥
( आश्वास २ - गाथा ११ )
कवि की उत्प्रेक्षा है कि समुद्र उस पर्वत के समान लगता है, जिसके पेड़ उखाड़ लिए गए हैं। वह समुद्र उस श्रीहीन सरोवर जैसा प्रतीत होता है, जिसका कमलवन तुषार से आहत हो गया हो, वह उस प्याले के समान दिखाई पड़ता है, जिसकी मदिरा पी ली गई हो और वह उस अंधकारपूर्ण रात्रि की तरह मालूम होता है, जो मनोरम चंद्रमा से रहित हो।
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समुद्र के संदर्भ में महाकवि की इस उत्प्रेक्षा (अलंकार) समुद्र के विराट और भयजनक रूप जैसी वस्तु ध्वनित या व्यंजित होती है।
इसी क्रम में महाकवि प्रवरसेन द्वारा आयोजित अलंकार से वस्तुध्वनि का एक और मनोरम चमत्कार इस गाथा में दर्शनीय बन पड़ा है
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ववसाअरइपओसो रोसगइंददिढसिंखलापडिबंधो। कह कहवि दासरहिणो जअकेसरिपंजरोगओ घणसमओ ॥
( आश्वास १- गाथा १४ )
यहाँ राम के वर्षाकाल बिताने का वर्णन है । कविश्रेष्ठ प्रवसेन ने रूपक अलंकार के द्वारा यह निर्देश किया है कि वर्षाकाल का समय राम के पुरुषार्थ रूप सूर्य के लिए रात्रिकाल बन गया था, उनके रोष रूप महागज के लिए मजबूत जंजीर का
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