Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्दरिमारकग्रन्य - जैन आगम एकसाहित्य - ग्रन्थ कर्ता के अनुकूल नहीं है।' इसी प्रकार कसायपाहुडसुत्त की मूल की, वहाँ यापनीयों ने श्वेताम्बर- मान्य आगमों और आगमिक गाथाएँ १८० थी, किन्तु आज उसमें २३३ गाथाएँ मिलती हैं---- अर्थात् व्याख्याओं से और दिगम्बरों ने यापनीय-परम्परा के ग्रन्थों से ऐसी उसमें ५३ गाथाएँ परवर्ती आचार्यों द्वारा प्रक्षिप्त हैं। यही स्थिति कुन्दकुन्द ही छेड़-छाड़ की। के समयसार, वट्टकेर के मूलाचार आदि की भी है। प्रकाशित संस्करणों निष्कर्ष यह है कि इस प्रकार की छेड़-छाड़ प्राचीन काल से में भी गाथाओं की संख्याओं में बहुत अधिक अन्तर है। समयसार लेकर वर्तमान काल तक होती रही है। कोई भी परम्परा इस सन्दर्भ के ज्ञानपीठ के संस्करण में ४१५ गाथाएँ हैं तो अजिताश्रम संस्करण में पूर्ण निर्दोष नहीं कही जा सकती। अत: किसी भी परम्परा का अध्ययन में ४३७ गाथाएँ। मूलाचार के दिगम्बर जैनग्रन्थमाला के संस्करण में करते समय यह आवश्यक है कि हम उन प्रक्षिप्त अथवा परिवर्धित १२४२ गाथाएँ हैं। तो फलटण के संस्करण में १४१४ गाथायें हैं, अंशों पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें, क्योंकि इस छेड़-छाड़ में कहीं अर्थात् १६२ गाथायें अधिक है, यह सब इस बात का प्रमाण है कि कुछ ऐसा अवश्य रह जाता है, जिससे यथार्थता को समझा जा सकता है। दिगम्बर- परम्परा के आचार्यों ने श्वेताम्बरों और यापनीयों की अपेक्षा परिवर्धनों और परिवर्तनों के बावजूद भी श्वेताम्बर-आगमों की बहुत अधिक प्रक्षेप एवं परिवर्तन किया है। इन उल्लेखों के अतिरिक्त एक विशेषता है, वह यह कि वे सब बातें भी जिनका उनकी परम्परा वर्तमान में भी इस प्रकार के परिवर्तनों के प्रयास हुए हैं, जैसे “धवला" से स्पष्ट विरोध है, उनमें यथावत् रूप से सुरक्षित हैं। यही कारण के सम्पादन के समय मूल ग्रन्थ षटखण्डागम से "संजद” पद को है कि श्वेताम्बर-आगम जैन धर्म के प्राचीन स्वरूप की जानकारी देने हटा देना, ताकि उस ग्रन्थ के यापनीय स्वरूप या स्त्री-मुक्ति के समर्थक में आज भी पूर्णतया सक्षम है। आवश्यकता है निष्पक्ष भाव से उनके होने का प्रमाण नष्ट किया जा सके। इस सन्दर्भ में दिगम्बर-समाज । अध्ययन की। क्योंकि उनमें बहुत कुछ ऐसा मिल जाता है, जिसमें में कितनी ऊहापोह मची थी और पक्ष-विपक्ष में कितने लेख लिखे जैनधर्म के विकास और उसमें आये परिवर्तनों को समझा जा सकता गये थे, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। यह भी सत्य है कि अन्त है। यही बात किसी सीमा तक यापनीय और दिगम्बर ग्रन्थों के सन्दर्भ में मूलप्रति में "संजद' पद पाया गया। तथापि ताम्रपत्र वाली प्रति में भी कही जा सकती है, यद्यपि श्वेताम्बर-साहित्य की अपेक्षा वह में वह पद नहीं लिखा गया, सम्भवत: भविष्य में वह एक नई समस्या अल्प ही है। प्रक्षेप और परिष्कार के बाद भी समग्र जैन-साहित्य में उत्पन्न करेगा। इस सन्दर्भ में भी मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर बहुत कुछ ऐसा है, जो सत्य को प्रस्तुत करता है, किन्तु शर्त यही दिगम्बर-परम्परा के मान्य विद्वान् पं० कैलाशचन्द्रजी के शब्दों को ही है कि उसका अध्ययन ऐतिहासिक और सम्प्रदाय-निरपेक्ष दृष्टि से हो, उद्धृत कर रहा हूँ। ५० बालचन्द्रशास्त्री की कृति 'षट्खण्डागम- तभी हम सत्य को समझ सकेंगे। परिशीलन' के अप.. सम्पादकीय में वे लिखते हैं-"समूचा ग्रन्थ प्रकाशित होन से पूरे हा एक और विवाद उठ खड़ा हुआ। प्रथम जैन-आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी? भाग के सूत्र ९३ में जा पाठ हमें उपलब्ध था, उसमें अर्थ-संगति की वर्तमान में 'प्राकृत-विद्या' नामक शोध पत्रिका के माध्यम से जैन दृष्टि से "संजदासंजद' के आगे "संजद'' पद जोड़ने की आवश्यकता विद्या के विद्वानों का एक वर्ग आग्रहपूर्वक यह मतं प्रतिपादित कर प्रतीत हुई, किन्तु इससे फलित होने वाली सैद्धान्तिक व्यवस्थाओं से रहा है "जैन आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी, जो कालान्तर कुछ विद्वानो के मन आलोडित हुए और वे “संजद" पद को जोड़ना में परिवर्तित करके अर्धमागधी बना दी गई। इस वर्ग का यह भी एक अनधिकार चेष्टा कहने लगे। इस पर बहुत बार मौखिक शास्त्रार्थ दावा है कि शौरसेनी प्राकृत ही प्राचीनतम प्राकृत है और अन्य सभी भी हुए और उत्तर-प्रत्युत्तर रूप लेखों की श्रृंखलाएँ भी चल पड़ी, प्राकृतें यथा- मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि इसी से विकसित जिनका संग्रह कुछ स्वतंत्र ग्रन्थों में प्रकाशित भी हुआ। इसके मौखिक हुई है, अत: वे सभी शौरसेनी प्राकृत से परवर्ती भी हैं। इसी क्रम समाधान हेतु जब सम्पादकों ने ताड़पत्रीय प्रतियों के पाठ की सूक्ष्मता में दिगम्बर परम्परा में आगमों के रूप में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द के से जाँच करायी तब पता चला कि वहाँ की दोनों भिन्न प्रतियों में हमारा ग्रन्थों में निहित अर्धमागधी और महाराष्ट्री शब्दरूपों को परिवर्तित सुझाया गया 'संजद' पद विद्यमान है। इससे दो बातें स्पष्ट हुईं- कर उन्हें शौरसेनी में रूपान्तरित करने का एक सुनियोजित प्रयत्न भी एक तो यह कि सम्पादकों ने जो पाठ-संशोधन किया है, वह गम्भीर किया जा रहा है। इस समस्त प्रचार-प्रसार के पीछे मूलभूत उद्देश्य चिन्तन और समझदारी पर आधारित है और दूसरी यह कि मूल प्रतियों यह है कि श्वेताम्बर मान्य आगमों को दिगम्बर परम्परा में मान्य आगमतुल्य से पाठ मिलान की आवश्यकता अब भी बनी हुई है, क्योंकि जो ग्रन्थों से अर्वाचीन और अपने शौरसेनी में निबद्ध आगमतुल्य ग्रन्थों पाठान्तर मूडबिद्री से प्राप्त हुए थे और तृतीय भाग के अन्त में समाविष्ट को प्राचीन सिद्ध किया जाये। इस पारस्परिक विवाद का एक परिणाम किये गये थे उनमें यह संशोधन नहीं मिला।"
यह भी हो रहा है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा के बीच कटुता की मेरे उपर्युक्त लेखन का तात्पर्य किसी की भावनाओं को ठेस खाई गहरी होती जा रही है और इन सब में एक निष्पक्ष भाषाशास्त्रीय पहुँचाना नहीं है, किन्तु मूलग्रन्थों के साथ ऐसी छेड़-छाड़ करने के अध्ययन को पीछे छोड़ दिया जा रहा है। प्रस्तुत निबन्ध में मैं इन लिए श्वेताम्बर, दिगम्बर, यापनीय सभी समानरूप से दोषी हैं। जहाँ सभी प्रश्नों पर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में ग्रन्थों श्वेताम्बर ने अपने ही पूर्व अविभक्त परम्परा के आगमों से ऐसी छेड़-छाड़ के आलोक में चर्चा करने का प्रयत्न करूंगा।
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