Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
View full book text
________________
पेत्तेजए
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य - बाद लोकोत्तर मृषावाद का वर्णन है। इसी प्रकार अदत्तादान, किया गया है। व्याख्यानशैली सरल है। मूल सूत्रपाठ और मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन आदि का वर्णन किया गया है। यह चूर्णिसम्मत पाठ में कहीं-कहीं थोड़ा-सा अंतर दृष्टिगोचर होता वर्णन मुख्यरूप से दो भागों में विभाजित है। इनमें से प्रथम भाग है। उदाहरण के रूप में कुछ शब्द नीचे उद्धृत किए जाते हैं। ये दपिकासंबंधी है, दूसरा भाग कल्पिकासंबंधी। दर्पिकासंबंधी भाग शब्द आठवें अध्ययन कल्प के अंतर्गत है- ७७ में तत्तद्विषयक दोषों का निरूपण करते हुए उनके सेवन का
सूत्रांक सूत्रपाठ
चूर्णिपाठ निषेध किया गया है जबकि कल्पिकासंबंधी भाग में तत्तद्विषयक अपवादों का वर्णन करते हुए उनके सेवन का विधान किया गया
पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि पुव्वत्तावरत्तंसि है। ये सब मूलगुणप्रतिसेवना से संबद्ध हैं। इसी प्रकार आचार्य ने
मुइंग
मुरव उत्तरगुणप्रतिसेवना का भी विस्तार व्याख्यान किया है। उत्तरगुण ६१ पट्टेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं जिय पटेहिं णिउणेहिं जिय पिण्डविशुद्धि आदि अनेक प्रकार के हैं। इनका भी दर्पिका और ६२ उण्होदएहि य कल्पिका के भेद से विचार किया गया है।
१०७ पित्तिज्जे __पीठिका की समाप्ति करते हुए इस बात का विचार किया १२२ अंतरावास
अंतरवास गया है कि निशीथपीठिका का यह सूत्रार्थ किसे देना चाहिए
अंतगडे और किसे नहीं। अबहुश्रुत आदि निषिद्ध पुरुषों को देने से प्रवचन
२३२ पज्जोसवियाणं
पज्जोसविए घात होता है। अतः बहुश्रुत आदि सुयोग्य पुरुषों को ही
अणट्ठाबंधिस्स
अट्ठाणबंधिस्स निशीथपीठिका का यह सूत्रार्थ देना चाहिए।७५ यहाँ तक पीठिका
का अधिकार है। इसके आगे निशीथसत्र और भाष्यगाथाओं का इस प्रकार के पाठभेदों के अतिरिक्त सूत्र-विपर्यास भी विश्लेषण करते हुए उनकी विषयवस्तु का विवरण दिया गया है। देखने में आता है। उदाहरण के लिए इसी अध्ययन के सूत्र १२६ इस पर विशेष विवेचन हेतु पं. दलसुख भाई मालवणिया की और १२७ चूर्णि में विपरीत रूप में मिलते हैं। इसी प्रकार आचार्य पुस्तक निशीथ एक अध्ययन' देखनी चाहिए।
पृथ्वीचंद्रविरचित कल्पटिप्पनक में भी अनेक जगह पाठभेद
दिखाई देता है। दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि यह चर्णि मुख्यतया प्राकत में है। कहीं-कहीं संस्कत -
पपूण शब्दों अथवा वाक्यों के प्रयोग भी देखने को मिलते हैं। चूर्णि यह चूर्णि - मूल सूत्र एवं लघु भाष्य पर है। इसकी भाषा का आधार मूल सूत्र एवं नियुक्ति है। प्रारंभ में चूर्णिकार ने संस्कृतमिश्रित प्राकृत है। प्रारंभ में मंगल की उपयोगिता पर परंपरागत मंगल की उपयोगिता का विचार किया है। तदनन्तर प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत चूर्णि का प्रारंभ का यह अंश प्रथम नियुक्ति-गाथा का व्याख्यान किया है--
दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि के प्रारंभ के अंश से बहुत कुछ मिलतावंदामि भद्दबाई, पाईणं चरमसयलसुअनाणिं।
जुलता है। इन दोनों अंशों को यहाँ उद्धृत करने से यह स्पष्ट हो सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे अ ववहारे।।1।।
जाएगा कि उनमें कितना साम्य है-- भद्दबाहु नामेणं, पाईणो गोत्तेणं, चरिमो अपच्छिमो, सगला
__मंगलादीणिसत्थाणि मंगलमज्झाणि मंगलावसाणाणि। इंचोद्दसपुव्वाइं। किं निमित्तं नमोक्कारो तस्स कज्जति? उच्यते
मंगलपरिग्गहिया य सिस्सा सुत्तत्थाणं अवग्गहेहापायधारणासमत्था जेण सुत्तस्स कारओ ण अत्थस्स, अत्थो तित्थगरातो पसूतो।
भवंति। तानिचाऽऽदिमध्याऽवसानमंगलात्मकानि सर्वाणि लोके जेण भण्णति-अत्थं भासति अरहा...। इसके बाद श्रुत का वर्णन
विराजन्ति विस्तारं च गच्छन्ति। अनेन कारणेनादौ मंगलं मध्ये किया गया है। तदनन्तर दशाश्रतस्कन्ध के दस अध्ययनों के मगलमवसाने मगलमिति। आदि मंगलग्गहणेणं तस्स स सत्थस्स अधिकारों पर प्रकाश डालते हुए उनका क्रमशः व्याख्यान
- अविग्धेण लहुं पारं गच्छन्ति। मज्झमंगलगहणेणं तं सत्थं
आ
थिरपरिजियं भवइ। अवसाणमंगलग्गहणेणं तं सत्थं सिस्सranduardiarioudidroidroidroidnidasdroidroomindia-[ ३८ Hamirsionirodwordsradd-insubmiuoridiroinorbidroin
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org