Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्रसुरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - विशद व्याख्या की है, साथ ही चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, नामक टीका की लघुवृत्ति है। अंतिम ग्रन्थ शाकटायनन्यास के न्यायवैशेषिक, मीमांसा और वेदान्तदर्शन के कुछ विशिष्ट सिद्धांतों प्रभाचन्द्रकृत होने का अभी सर्वसम्मत निर्णय नहीं हो सका है।५९ का स्पष्ट विवेचन एवं निराकरण किया है। इससे इनके गंभीर पांडित्य
वादिराज - ये प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायककुमुचन्द्र के का पता चलता है। इनकी एक मात्र कृति प्रमेयरत्नमाला है। अनन्तवीर्य का समय विक्रम की बारहवीं शताब्दी माना जाता है।५५
रचयिता प्रभाचन्द्र के समकालीन और अकलंकदेव के ग्रन्थों
के व्याख्याता हैं। चालुक्यनरेश जयसिंह की राजसभा में इनका अनन्तकीर्ति - आचार्य अनन्तकीर्ति-रचित लघु सर्वज्ञसिद्धि बड़ा सम्मान था। इनका काल १०१० से १०६५ ई. माना जाता और बृहत् सर्वज्ञसिद्धि नाम से दो प्रकरण लघीयस्त्रयादि संग्रह है। इनके द्वारा निम्नलिखित ग्रन्थ प्रणीत हुए -१. पार्श्वनाथचरित, में छपे हैं। उनके अध्ययन से प्रकट होता है कि वे एक प्रख्यात २.यशोधरचरित, ३. एकीभावस्तोत्र, ४. न्यायविनिश्चय-विवरण, दार्शनिक थे। उन्होंने इन प्रकरणों में वेदों के अपौरुषेयत्व का ५. प्रमाण-निर्णय। इनमें से अंतिम दो दार्शनिक कृतियाँ हैं। खंडन करके आगम की प्रमाणता में सर्वज्ञ प्रणीतता को ही न्यायविनिश्चय-विवरण अकलंकदेव के न्यायविनिश्चय ग्रन्थ का कारण सिद्ध किया है। उन्होंने सर्वज्ञता के पूर्वपक्ष में जो श्लोक बीस हजार श्लोकप्रमाण भाष्य है। बौद्धमत समीक्षा में धर्मकीर्ति उद्धृत किए हैं, उनमें कुछ मीमांसाश्लोकवार्तिक के, कुछ के प्रमाणवार्तिक और प्रज्ञाकर के वार्तिकालंकार की प्रमाणवार्तिक के और कुछ तत्त्वसंग्रह के हैं। प्रभाचंद्र ने न्यायकुमुदचंद्र गहरी और विस्तृत आलोचना अन्यत्र देखने में नहीं आयी। और प्रमेयकमलमार्तण्ड के सर्वज्ञसाधक प्रकरणों में अनन्तकीर्ति वार्तिकालंकार का आधा भाग इसमें आलोचित है। इसके की बृहत्सर्वज्ञसिद्धि का शब्दपरक अनुकरण किया है.६ अतिरिक्त न्यायविनिश्चयविवरण में धर्मोत्तर शांतिभद्र, अर्चट आचार्य माणिक्यनन्दि - ये जैन-न्याय के आद्य सूत्रकार
आदि प्रमुख बौद्ध दार्शनिकों की समीक्षा है। प्रमाणनिर्णय एक
लघुकाय ग्रन्थ है। इसके चार प्रकरण हैं- १. प्रमाणनिर्णय, २. हैं। इनका समय ईसा की नौवीं शताब्दी है। इन्होंने अकलंक देव
प्रत्यक्षनिर्णय, ३. परोक्षनिर्णय, ४. आगमनिर्णय। के वचनरूपी अमृत का मंथन करके न्यायविद्या रूपी अमृत का उद्धार किया था। यद्यपि इनकी रचना परीक्षामुखसूत्र का गुणभद्र - जिनसेन द्वितीय के पट्टशिष्य आचार्य गुणभद्र थे, प्रधान आधार समन्तभद्र, सिद्धसेन और अकलंक के ही ग्रन्थ हैं, जिनका अमोघवर्ष तथा उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय दोनों ही सम्मान तथापि सूत्ररचना में विशेष रूप से हेतु के भेद-प्रभेदों के बतलाने करते थे। इन्हें अमोघवर्ष ने अपने पुत्र का शिक्षक नियुक्त में उन्होंने अपने पूर्ववर्ती बौद्धग्रन्थ न्यायविन्दु का भी भरपूर उपयोग किया था। इन्होंने गुरु द्वारा प्रारंभ किए गए महापुराण को संक्षेप किया है । दोनों ग्रन्थों की तुलना से यह बात स्पष्ट हो जाती है। में पूरा किया। इनके द्वारा लिखा गया भाग उत्तरपुराण कहलाता
है। इसके अतिरिक्त आत्मानुशासन, जिनदत्तचरित आदि ग्रन्थ प्रभाचन्द्र - आचार्य प्रभाचन्द्र का काल ९५० ई. से १०२०
भी उन्होंने रचे।६१ ई. के मध्य माना जाता है। वे एक बहुश्रुत विद्वान् थे। सभी दर्शनों के प्राय: सभी मौलिक ग्रन्थों का इन्होंने अभ्यास किया
देवसेन - आचार्य देवसेन स्वयं भी गणि थे, अर्थात् गण के था। इतर दर्शनों के ग्रन्थों के उद्धरण के साथ उन्होंने बौद्धों के नायक थे। ये विक्रम संवत् ९९० में हए हैं। इन्होंने अपने ग्रन्थों अभिधर्मकोश, न्यायविन्दु, प्रमाणवार्तिक, माध्यमिकवृत्ति आदि में अपना परिचय नही दिया है आ
, वार्तिक मामिकतन आदि में अपना परिचय नहीं दिया है और न उन ग्रन्थों की रचना का ग्रंथों के उद्धरण दिए हैं। इनके द्वारा लिखित चार ग्रन्थ माने जाते समय बताया है। दर्शनसार ग्रन्थ के पढ़ने से यह बात स्पष्ट हो हैं--१. प्रमेयकमलमार्तण्ड, २. न्यायकुमुदचन्द्र, ३. तत्त्वार्थवृत्ति,
३ तत्त्वार्थवत्ति जाती है कि वे मूलसंघ के आचार्य थे। दर्शनसार में उन्होंने काष्ठा
जा ४. शाकटायनन्यास। प्रमेयकमलमार्तण्ड माणिक्यनन्दि के संघ, द्राविड संघ, माथुर संघ और यापनीय संघ आदि सभी परीक्षामख नामक सत्र-ग्रन्थ का विस्तृत भाष्य है। अकलंकदेव दिगंबर संघों की उत्पत्ति बतलाई है और उन्हें मिथ्यात्वी कहा है. के लघीयस्त्रय तथा उसकी विवत्ति के व्याख्यानग्रन्थ का नाम परंतु मूल संघ के विषय में कुछ नहीं कहा है। अर्थात उनके न्यायकमदचन्द्र है। तत्त्वार्थवत्ति आचार्य पज्यपादकत सर्वार्थसिद्धि विश्वास के अनुसार यही मूल से चला आया है और यही वास्तविक
संघ है।६२ इनके द्वारा ये ग्रन्थ लिखे गए--१. दर्शनसार, dandramdroinodromirandirmironiorewormidniwarinition ५८ Hadmiriddindivariordaroristianitarorariwariyar
मंशा
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