Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - उत्कृष्टता प्रदान की है। क्षत्रचूडामणि जैसा सूक्तिकाव्य अद्वितीय जैन आचार्य महावीराचार्य ने ८५० ई. के लगभग किया था। है, जिसके प्रायः प्रत्येक पद्य में सूक्ति का प्रयोग किया गया है। आपके जन्मस्थान जन्मवर्ष दीक्षागुरु, दीक्षावर्ष तथा माता-पिता
आदि के संदर्भ में इतिहास पूर्णतः मौन है। पद्मनन्दी- इन्होंने पद्मनन्दिपबचविंशतिका के प्रत्येक प्रकरण में अपने नाममात्र का ही निर्देश किया है, इसके अतिरिक्त
गणितसारसंग्रह गणित की अनेक विशेषताओं को अपने इन्होंने अपना कोई विशेष परिचय नहीं दिया। इतना अवश्य है में समाहित किए हुए है। उसका क्षेत्रगणित व्यवहार अनेक कि इन्होंने दो स्थलों पर वीरनन्दी इस नामोल्लेख के साथ अपने विशिष्टताओं से परिपूर्ण है। आपने विविध प्रकार के त्रिभजों. गुरु के प्रति कृतज्ञता का भाव दिखलाते हुए अतिशय भक्ति चतुर्भुजों, वृत्त आदि के क्षेत्रफल ज्ञात करने के साथ ही दीर्घवृत्ति, प्रकट की है। इसके अतिरिक्त नामनिर्देश के बिना उन्होंने अनेक यवाकार, मुरजाकार, पणवाकार, वज्राकार, एकनिषेध क्षेत्र, स्थानों पर गरुरूप से उनका स्मरण करते हए उनके प्रति अत्यधिक उभयनिषेध क्षेत्र, तीन एवं चार संस्पर्शी वृत्तों से आबद्ध क्षेत्र. श्रद्धा का भाव व्यक्त किया है।
हस्तदंत क्षेत्र का क्षेत्रफल निकालने के नियम भारतीय गणित में श्री पद्मनन्दी मुनि द्वारा विरचित इन कृतियों के पढ़ने से
सर्वप्रथम प्रतिपादित किए हैं। दीर्घवृत्त के अतिरिक्त अन्य
आकृतियों की तो चर्चा भी सर्वप्रथम आपने ही की। मात्र वृत्त ज्ञात होता है कि वे मुनिधर्म का दृढ़ता से पालन करते थे। वे
ही नहीं, अपितु गोलीय खण्डों (नतोदर + उन्नतोदर) के आयतन मूलगुणों के परिपालन में थोड़ी सी भी शिथिलता को नहीं सह सकते थे। उनका दिगंबरत्व में विशेष अनुराग ही नहीं था, बल्कि
ज्ञात करने के सूत्र भी उपलब्ध हैं।६९ वे उसे संयम का एक आवश्यक अंग मानते थे। प्रमाद के परिहारार्थ मानतुङ्गसूरि - सुप्रसिद्ध भक्तामरस्तोत्र के प्रणेता मानतुङ्गसूरि उन्हें एकान्तवास अधिक प्रिय था। वे अध्यात्म के विशेष प्रेमी को कुछ इतिहासज्ञ विद्वानों ने हर्षवर्द्धन के समकालीन बतलाया थे। ये विक्रम सं. १०७५ के पश्चात् और १२४० के पूर्व हुए। है। सम्राट हर्ष का समय सातवीं शताब्दी है, अत: पं. पन्नालाल शाकटायन पाल्यकीर्मि - ये पाणिनि से १०० वर्ष पर्व साहित्याचार्य ने महापुराण की प्रस्तावना (पृ. २२) में आचार्य
मानतुङ्ग को ७वीं शताब्दी का लिखा है ६०। भक्तामरस्तोत्र के हुए प्रसिद्ध वैयाकरण शाकटायन से भिन्न हैं। इन्होंने स्वोपज्ञ
रचयिता मूलतः ब्राह्मणधर्मानुयायी और सुकवि थे। बाद में अमोघवृत्ति सहित शाकटायन शब्दानुशासन की रचना की है।
अनेक परिवर्तनों के बाद दिगंबर जैन साधु हो गए थे। उन्हीं ने अमोघवृत्ति के प्रारंभ में में शाकटायन नाम से ही इनका निर्देश
भक्तामर काव्य बनाया है।६१ भक्तामर स्तोत्र जैनों में अत्यधिक किया गया है। शाकटायन का एक अन्य नाम पाल्यकीर्ति भी
लोकप्रिय है। अनेक भाई-बहन तो प्रतिदिन भक्तामर का पाठ मिलता है। ये यापनीय संघ के आचार्य थे। वादिराज द्वारा निर्देश
करके ही आहार ग्रहण करते हैं। आधुनिक हिन्दी में इसके १०० होने के कारण इनका समय ई. सन १०२५ के पूर्व है। इनकी तीन
से अधिक पद्यानुवाद हो गए हैं। रचनाएँ प्राप्त होती हैं - १. अमोघवृत्तिसहित शाकटायन-शब्दानुशासन।
महासेनाचार्य २. स्त्रीमुक्ति
महासेन वाट-वर्गट य लाट-वागड़ संघ के आचार्य थे। ३. केवलिमुक्ति
प्रद्युम्नचरित की कारजा भंडार में प्राप्त प्रशस्ति से ज्ञात होता महावीराचार्य - मात्र भारतीय ही नहीं, अपित विश्व-इतिहास है कि लाट-वर्गट संघ में सिद्धान्तों के पारगामी जयसेन मुनि में आपकी विशिष्ट कीर्ति आपकी बहश्रत कति गणितसारसंग्रह हुए, उनके शिष्य गुणाकरसेन। इन गुणाकरसेन के शिष्य महासेन के कारण है। ज्योतिष के प्रभाव से पूर्णत: मक्त पाठ्यपस्तक सूरि हुए, जो राजा मुज द्वारा पूजित थे। सिन्धुराज या सिन्धुल की शैली में निबद्ध इस कति का प्रणयन मान्यखेट के शासक के महामात्य पर्पट ने जिनके चरणकमलों की पूजा की थी। इन्हीं राष्ट्रकूटवंशीय नृपतुंग अमोघवर्ष के राज्यकाल में संभवतः महासेन ने प्रद्युम्नचरित काव्य की रचना की और राजा के अनचर उनके ही राज्यक्षेत्र अथवा उसके समीप विहार करने वाले दि.
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