Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
View full book text
________________
-चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - चूर्णियाँ जिनदासगणि महत्तर की कही जाती है-निशीथविशेषचूर्णि, हैं, इसकी संभावना का विचार करते हुए पं. दलसुख मालवणिया नन्दीचूर्णि, अनुयोगद्वारचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, लिखते हैं कि आचार्य जिनभद्र के पश्चात्वर्ती तत्त्वार्थभाष्यउत्तराध्ययनचूर्णि और सूत्रकृतांगचूर्णि। उपलब्ध जीतकल्पचूर्णि व्याख्याकार सिद्धसेनगणि और उपमितिभवप्रपंचकथा के लेखक सिद्धसेनसूरि की कृति है। बृहत्कल्पचूर्णिकार का नाम प्रलम्बसूरि सिद्धर्षि अथवा सिद्धव्याख्यानिक-ये दो प्रसिद्ध आचार्य तो है। आचार्य जिनभभद्र की कृतियों में एक चर्णि का भी समावेश प्रस्तुत चूर्णि के लेखक प्रतीत नहीं होते, क्योंकि यह चूर्णि, भाषा है। यह चूर्णि अनुयोगद्वार के अंगुल पद पर है जिसे जिनदास की का प्रश्न गौण रखते हुए देखा जाए तो भी कहना पड़ेगा कि, बहुत अनुयोगद्वार चूर्णि में अक्षरश: उद्धृत किया गया है। इसी प्रकार सरल शैली में लिखी गई है, जबकि उपर्युक्त दोनों आचार्यों की दशवकालिक सूत्र पर भी एक और चूर्णि है। इसके रचयिता शैली अति क्लिष्ट है। दूसरी बात यह है कि इन दोनों आचार्यों की अगस्त्यसिंह हैं। अन्य चूर्णिकारों के नाम अज्ञात हैं।
कृतियों में इसकी गिनती भी नहीं की जाती। इससे प्रतीत होता है जिनदासगणि महत्तर के जीवन-चरित्र से संबंधित विशेष
कि प्रस्तुत जिनभद्रकृत बृहत्क्षेत्रसमास की वृत्ति के रचयिता सामग्री उपलब्ध नहीं है। निशीथविशेषचूर्णि के अंत में चू
सिद्धसेनसूरि प्रस्तुत चूर्णि के भी कर्ता होने चाहिए क्योंकि इन्होंने का नाम जिनदास बताया गया है तथा प्रारंभ में उनके विद्यागरु उपर्युक्त वृत्ति वि.सं. ११९२ में पूर्ण की थी। दूसरी बात यह है कि के रूप में प्रद्युम्न क्षमाश्रमण के नाम का उल्लेख किया गया है।
इन सिद्धसेन के अतिरिक्त अन्य किसी सिद्धसेन का इस समय के उत्तराध्ययनचूर्णि के अंत में चर्णिकार का परिचय दिया गया है आसपास होना ज्ञात नहीं होता। ऐसी स्थिति में बृहत्क्षेत्रसमास की किन्तु उनके नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है। इसमें वृत्ति के कर्ता और प्रस्तुत चूर्णि के लेखक संभवत: एक ही उनके गरु का नाम वाणिज्यकलीन कोटिकगणीय वजशाखीय सिद्धसेन है। यदि ऐसा ही है तो मानना पड़ेगा कि चर्णिकार सिद्धसेन गोपालगणि महत्तर बताया गया है। नंदीचूर्णि के अंत में चूर्णिकार
उपकेशगच्छ के थे तथा देवगुप्तसूरि के शिष्य एवं यशोदेवसूरि के ने अपना जो परिचय दिया है वह स्पष्ट रूप में उपलब्ध है। गुरुभाई थे। इन्हीं यशोदेवसूरि ने उन्हें शास्त्रार्थ सिखाया था। जिनदास के समय के विषय में इतना कहा जा सकता है कि ये उपर्युक्त मान्यता पर अपना मत प्रकट करते हुए पं. श्री भाष्यकार आचार्य जिनभद्र के बाद एवं टीकाकार आचार्य हरिभद्र सुखलालजी लिखते हैं कि जीतकल्प एक आगमिक ग्रंथ है। के पूर्व हुए हैं, क्योंकि आचार्य जिनभद्र के भाष्य की अनेक यह देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी चर्णि के कर्ता कोई गाथाओं का उपयोग इनकी चूर्णियों में हुआ है, जबकि आचार्य आगमिक होने चाहिए। इस प्रकार के एक आगमिक सिद्धसेन हरिभद्र ने अपनी टीकाओं में इनकी चूर्णियों का पूरा उपयोग क्षमाश्रमण का निर्देश पंचकल्पचूर्णि तथा हारिभद्रीयवृत्ति में है। किया है। आचार्य जिनभद्र का समय विक्रम संवत् ६००-६६० संभव है कि जीतकल्पचूर्णि के लेखक भी यही सिद्धसेन क्षमाश्रमण के आसपास है तथा आचार्य हरिभद्र का समय वि.सं. ७५७- हों।१२ जब तक एतद्विषयक निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं होते ८२७ के बीच का है। ऐसी दशा में जिनदासगणि महत्तर का तब तक प्रस्तुत चूर्णिकार सिद्धसेन सूरि के विषय में निश्चित रूप समय वि.सं. ६५०-७५० के बीच में मानना चाहिए। नन्दीचूर्णि से विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता। के अंत में उसका रचनाकाल शक संवत् ५९८ अर्थात् वि.सं. पं. दलसख मालवणिया ने निशीथ-चर्णि की प्रस्तावना ७३३ निर्दिष्ट है। इससे भी यही सिद्ध होता है।
में संभावना की है कि ये सिद्धसेन आचार्य जिनभद्र के साक्षात् उपलब्ध जीतकल्पचूर्णि के कर्ता सिद्धसेनसूरि है। प्रस्तुत शिष्य हों। ऐसा इसलिए संभव है कि जीतकल्पभाष्य चूर्णि का सिद्धसेन सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न ही कोई आचार्य हैं। इसका मंगल इस बात की पुष्टि करता है। साथ ही यह भी संभावना की है कारण यह है कि सिद्धसेन दिवाकर जीतकल्पकार आचार्य जिनभद्र कि बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ भाष्य के भी कर्ता ये हों।१३ के पूर्ववर्ती हैं प्रस्तुत चूर्णि की एक व्याख्या (विषमपदव्याख्या)
बृहत्कल्पचूर्णिकार प्रलंबसूरि के जीवनचरित्र पर प्रकाश श्रीचंद्रसरि ने वि.सं. १२२७ में पूर्ण की है अतः चूर्णिकार सिद्धसेन डालने वाली कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है। ताडपत्र पर लिखित वि.सं. १२२७ के पहले होने चाहिए। ये सिद्धसेन कौन हो सकते प्रस्तत चर्णि की एक प्रति का लेखन-समय वि.सं. १३३४ हैं।१४ సారసాగరుగారురంగురువారసారంగారూరురు రంగురువారూరురుపాదుగురురురురురురలో
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org