Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व शास्त्रार्थ की इस घटना से आपकी कीर्ति काफी बढ़ गयी थी। आपकी विद्वत्ता की धाक भी जम गयी थी। प्रतिष्ठाएँ, दीक्षाएँ, संघयात्राएँ भी होती रहीं और साहित्य-सृजन भी चलता रहा। इन सबके साथ जहाँ कहीं भी आपने संघ में कुछ कमी देखी वहीं आपने एकता एवं मैत्री के लिए प्रयास किया । समय व्यतीत होता रहा और आप संयम साधना के सोपान चढ़ते गये। आपकी ख्याति एक महान् साहित्यकार के साथ-साथ महान साधक एवं व्याख्यान-वाचस्पति के रूप में हो गयी। जहाँ-कहीं भी आप पधारते, आपकी ख्याति आपके पूर्व वहाँ पहुँच जाती। कार एक आपने केवल नगरीय क्षेत्रों में ही विचरणकर धर्म प्रचार नहीं किया वरन् आप ऐसे क्षेत्रों में भी पहुँचे, जहाँ उन दिनों पहुँचना सरल नहीं माना जाता था, जहाँ भी आप पहुँचते वहाँ के गुरुभक्त कृतकृत्य हो जाया करते थे।
वि.सं. १९९३ माघ शुक्ला सप्तमी को आपको फिर एक आघात सहन करना पड़ा। इस दिन आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरिजी म. का आहोर में स्वर्गवास हो गया। इस समय आप कुक्षी में विराजमान थे। जैसे ही आचार्यश्री के स्वर्गगमन का समाचार मिला, सारे समाज में शोक की लहर छा गयी। आपके पावन सान्निध्य में गुणानुवाद सभा कर आचार्यश्री को हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
आचार्य श्री भूपेन्द्र सूरिजी म.के देवलोक गमन से गच्छ-नायक का पद रिक्त हो गया था। लगभग दस माह व्यतीत हो गये। अभी तक आचार्य पद का निर्णय नहीं हो पाया था। पद कब तक रिक्त रहता। अंततः सम्प्रदाय के समस्त साधु-साध्वियों और प्रतिष्ठित श्रावकों ने आपको आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित करने का निर्णय लिया। इन दिनों आप अलीराजुपर में विराजमान थे। इस निर्णय के उपरांत आहोर से प्रतिष्ठित श्रावकों का एक प्रतिनिधिमंडल अलीराजपुर में आपकी सेवा में उपस्थित हुआ और आपको संघ की सदिच्छा और निर्णय से अवगत करवाया। संघ की आज्ञा का पालन करना प्रत्येक साधु-साध्वी के लिए अनिवार्य है, ऐसी शास्त्र-मर्यादा है। आपने भी इस मर्यादा का पालन किया और संघ की आज्ञा शिरोधार्य की। पाटोत्सव का आयोजन आहोर में ही किया जाना निश्चित हुआ था। अतः आपने शिष्य - परिवार सहित अलीराजपुर से आहोर के लिए विहार कर दिया। ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आप चैत्र पूर्णिमा वि.सं. १९९५ को आहोर पधारे। आपके आहोर पधारने के पूर्व ही आपके सम्प्रदाय के मुनिवर एवं साध्वी-गण भी आहोर पधार चुके थे। आपका नगर प्रवेशोत्सव समारोहपूर्वक हुआ। इस अवसर पर हजारों की संख्या में गुरुभक्त एकत्र हुए थे। प्रमुख मार्गों से होता हुआ आपके नगर-प्रवेश का चल समारोह धर्मशाला में जाकर धर्मसभा में परिवर्तित हो गया। इस धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए अपने प्रवचन में आपने गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्र सूरीजी म. आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरिजी एवं आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरिजी के दिव्य गुणों का वर्णन किया। तदनन्तर आपने उपाध्याय श्री मोहन विजय जी के आत्मधन का परिचय दिया। तदनन्तर आपने अपने आपको सूरिपद के अयोग्य बताते हुए फरमाया कि वे श्रीसंघ की आज्ञा के समक्ष विवश है। श्रीसंघ की आज्ञा अनिवार्यतः शिरोधार्य होती है। इस दृष्टि से आपने अपनी स्वीकृति प्रदान की।
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