Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - शास्त्रार्थ में प्रवीण आचार्य देव
महत्तरिका गुरुणिजी श्री ललित श्रीजी की - शिष्या सेवाभावी
साध्वी श्री संघवण श्रीजी...ky
शास्त्रार्थ की परम्परा प्राचीन एवं मध्यकाल में अधिक प्रचलित थी। वर्तमान काल में तो शास्त्रार्थ का नाम तक सुनने को नहीं मिलता है। हाँ, शास्त्रार्थ के स्थान पर आजकल विद्वत् गोष्ठियाँ अवश्य होती हैं। इन गोष्ठियों में विद्वानों द्वारा विभिन्न विषयक आलेखों का वाचन किया जाता है और कुछ अन्य विद्वानों द्वारा उन पर प्रश्न पूछे जाते हैं। जिनका समाधान लेखक के द्वारा किया जाता है। शास्त्रार्थ में अपने मत या पक्ष को सत्य सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। इसमें दो पक्ष होते हैं। दोनों पक्ष अपने मत को सत्य सिद्ध करने के लिए शास्त्रीय प्रमाणों सहित तर्क प्रस्तुत करते हैं। एक निर्णायकमंडल होता है, जो निष्पक्ष रहकर अपना निर्णय देता है कि जो शास्त्रप्रमाण प्रस्तुत किया गया है और उसे आधार मानकर जो तर्क प्रस्तुत किये गये हैं, वे सत्य हैं अथवा असत्य। सत्य होने की स्थिति में मान्य कर लिये जाते हैं और असत्य होने की स्थिति में निरस्त कर दिये जाते हैं जो पक्ष अंत तक अपना पक्ष सही ढंग से रखने में असमर्थ होता है, उसे निर्णायक मंडल पराजित घोषित कर देता है और दूसरे पक्ष को विजयी घोषित कर दिया जाता है।
वि.सं. १९८० में तत्कालीन आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. की आज्ञा से आप (मुनिराज श्री यतीन्द्र विजय जी म.सा.) का वर्षावास रतलाम में था। इसी वर्ष रतलाम में श्रीमद सागरानंद सूरि जी का भी वर्षावास था। श्रीमद् सागरानंद सूरि जैनाचार्यों में आगमज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान् माने जाते थे। इस प्रकार दो आगमवेत्ताओं का वर्षावास रतलाम में था। दोनों अपने अपने पाण्डित्य और दिव्य तेज के लिए भी विश्रुत थे। श्रीमद् सागरानंद सूरी की तुलना में मुनिराज श्री यतीन्द्र विजय जी म.सा अल्पायु के थे। अल्पायु में बढ़ता हुआ उनका दिव्य प्रभाव श्रीमद् सागरानंद सूरि को सहन नहीं हो पा रहा था। उन्होंने मुनिराज श्री यतीन्द्र विजय जी म.सा. के साथ शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव रखा। शास्त्रार्थ का विषय था- जैन श्वेताम्बर साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिये या पीत। सामान
श्रीमद् सागरानंद सूरी की धारणा यह रही होगी कि इस शास्त्रार्थ के माध्यम से मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. को पराजित कर नीचा दिखा दिया जाये। मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. ने शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर लिया। ये योग्य गुरु के योग्य शिष्य थे। अपने गुरुदेव से अगाध ज्ञान प्राप्त किया था और शास्त्रार्थ-विधि भी सीखी थी। यहाँ यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक ही होगा कि शास्त्रार्थ प्रारंभ होने के पूर्व उसके कुछ नियम भी निर्धारित कर लिये जाते हैं। इन नियमों का पालन करना दोनों पक्षों के लिए अनिवार्य होता है। इस शास्त्रार्थ के लिए निम्नांकित विद्वानों का एक निर्णायक मंडल बनाया गया था।
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