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वाली मृत्यु और तद्जन्य दुर्गति से मुझे बचा लिया। हे कृपानिधि! वर्षाऋतु के मेघ का जीवलोक की तरह अतुल उपकारी आपका मैं क्या प्रत्युपकार करूँ? किन्तु चित्रगति ने मित्र सुमित्र से अपने नगर में जाने की अनुमति मांगी। तब सुमित्र ने कहा, 'प्रियभाई! यहाँ से समीप में सुयशा नामक केवली भगवन्त हैं, वे विहार करते हुए इसी तरफ आ रहे हैं। वे जब अनुक्रम से यहाँ आवें, तब उनको वंदन करके बाद में जाना। तब तक आप उनकी राह देखते हुए यहीं रहने का अनुग्रह करो। चित्रगति ने स्वीकार किया, उसने वहाँ रहकर जुगलबंधु की भांति सुमित्र के साथ क्रीड़ा करते हुए कई दिन व्यतीत किये।
(गा. 164 से 174) एक दिन दोनों ही उद्यान में गये। वहाँ पर उन्होंने देखा कि जंगम कल्पवृक्ष के तुल्य सुयशा नामक केवली पधारे हैं। सुवर्ण कमल पर स्थित, अनेक देवताओं से परिवृत्त और जिनके समागत की बहुत काल से इच्छा थी, ऐसे केवली मुनि भगवंत को देखकर प्रमुदित हुए उनको प्रदक्षिणा देकर, वंदन कर दोनों समीप ही बैठ गये। उनके आगमन के समाचार सुनकर सुग्रीव राजा भी उनको वंदन करने हेतु आए। मुनि ने मोहरुपी निद्रा में दिवामुख अर्थात् प्रातःकाल जैसी धर्मदेशना दी। देशना के अंत में चित्रगति ने मुनि को नमस्कार करके कहा, 'हे भगवन! आपने कृपा करके मुझे अति उत्तम बोध दिया है। हे प्रभु! श्रावक पना तो मेरे कालक्रम से चल रहा है, परंतु इस अभागे को जैसे सन्मुख रही निधि का भी भान नहीं होता उसी तरह आप यहाँ विचर रहे हैं, यह मुझे विदित नहीं होता। यह सुमित्र मेरा अतुल उपकारी है कि जिसने ऐसे सद्धर्म उपदेशक के चरणों के दर्शन कराए।' इस प्रकार कहकर उस सद्बुद्धि वाले चित्रगति ने उन मुनि के पास समकितपूर्वक गृहस्थधर्म स्वीकारा। पश्चात् सुग्रीव राजा ने मुनि को प्रणाम करके पूछा- 'हे भगवन्! इस मेरे महात्मा पुत्र को विष देकर वह भद्रा स्त्री कहाँ गई ?' मुनि ने कहा- 'वह स्त्री यहाँ से भाग कर अरण्य में गई, वहाँ चोरों ने उसके आभूषण ले लिए और उसे पल्लिपति को सौंप दिया। पल्लिपति ने एक वणिक् को उसे बेच दिया। वहाँ से भी वह भाग गई। और मार्ग में एक बड़े दावानल में दग्ध हो गई। वहाँ वह रौद्र ध्यान में मरकर प्रथम नरक में गई है। वहाँ से च्यव कर वह एक चांडाल के घर में स्त्री होगी। उसके सगर्भा होने पर उसकी सपत्नी उससे कलह करके छुरी द्वारा उसे मार डालेगी। वहाँ से मरकर वह तीसरी नरक में जावेगी और बाद में वह तिर्यञ्चयोनि
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)