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सर्वार्थसिद्धि
3. इसपर टीका लिखनेका उपक्रम जगरूपसहायजी वकील एटा निवासीने भी किया है। जब वकील सा० इस टीकाको तैयार कर रहे थे तभी मैं श्री स्याद्वाद दिग० जैन महाविद्यालयके धर्माध्यापक पदसे अलग हो गया था। अतः वकील सा० ने उसमें आवश्यक संशोधन व सुधार आदि करनेके लिए मुझे दिल्ली आमन्त्रित कर लिया था और एक माह रहकर मैंने उसमें आवश्यक संशोधन भी किया था। किन्तु काम हो जानेपर बिना सहारेके मुझे उससे अलग हो जाना पड़ा था। इस समय वह भी हमारे सामने नहीं है, अन्यथा उसमें क्या विशेषता आदि है इसपर भी मैं विशेष प्रकाश डालनेका उपक्रम करता।
इन तीनके अतिरिक्त अन्य किसीने सर्वार्थसिद्धिका हिन्दी अनुवाद या उसकी भाषा-वचनिका लिखी है, इसकी मुझे विशेष जानकारी नहीं है। विशेषु किमधिकम् ।
4. आभार
जैसाकि मैं प्रारम्भमे ही लिख आयाहूँ यह भूलानुगामी अनुवादसहित सर्वार्थसिद्धि-वृत्तिका जो संस्करण हमारे सामने उपस्थित है वह दूसरा संस्करण है । इसमें जो संशोधन हमने किये हैं उनके साथही थोड़ा-भी फेरबदल किये बिना प्रस्तुत संस्करण मुद्रित होना है। भारतीय ज्ञानपीठके आदरणीय भाई लक्ष्मीचन्द्रजी की सूचना पर हमने मुद्रणके लिए यह संस्करण तैयार किया है, अतः हम उनके विशेष आभारी हैं। साथही, हम डॉ. गुलाबचन्द्रजीके और भी विशेष आभारी हैं। यह उन्हींकी सत्प्रेरणाका फल है कि हम इस संस्करण का इतने अल्पकाल में संशोधन-सम्पादन कर सके हैं । इस संस्करणके तैयार करने में हमने मूल और अनुवाद का अक्षरशः मिलान किया है। और मल और अनुवाद में जो संशोधन आवश्यक थे वे किए गये हैं। इसकी प्रस्तावनाका भी हमने अक्षरशः पुन: निरीक्षण किया है। उसमें ऐसी कोई बात नहीं लिखी गई है जिसकी आगमसे पुष्टि नहीं होती। आगमकी कसौटी पर कभी भी उसे कसा जा सकता है। इसी प्रस्तावना पर ही दिल लोके विज्ञानभवनमें प्रशस्ति-पत्र के साथ भारतके उपराष्ट्रपति के द्वारा न केवल हमारा स्वागत सत्कार हुआ था, अपितु हम 'सिद्धान्त रत्न' जैसी मानद उपाधिसे भी अलंकृत किया गया था। यह सब पूज्य एलाचार्य विद्यानन्द महाराजकी सूझ-बूझका परिणाम है, अतः हम उनके प्रति विशेष आभारी हैं। हम चाहते हैं कि भारतवर्ष मे आगमानुसारी जितने भी विद्वान् हैं उन सबका भी इसी प्रकार स्वागत-सत्कार होना चाहिए। यह निकृष्ट काल है, किसी प्रकार शास्त्रीय विद्वानोंकी यह परम्परा अविच्छिन्न चलती रहे—यह हमारी हार्दिक इच्छा है। पूज्य एलाचार्यजी महाराजमें वे सब गुण विद्यमान हैं, समाज पर उनका अक्षुण्ण प्रभाव भी है। वे यदि इस कार्यको अपने हाथमें लें तो हमें ऐसा एक भी कारण नहीं दिखाई देता कि इसमें सफलता नहीं मिलेगी, अवश्य मिलेगी ऐसा हमारा विश्वास है।
5 जुलाई, 1983
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