Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ सर्वार्थसिद्धि हैं। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए और इस प्रकार समयभेदसे अन्तर्मुहर्त के भीतर सब संयतोंकी उक्त संख्या बन जाती है यहां ऐसा अभिप्राय समझना चाहिए। __ पृष्ठ 395 पंक्ति 14 (25-11) में "सूक्ष्ममनुष्यं प्रति मनुष्या मिथ्यादृष्टयः" के आगे "श्रेण्यसंख्येयभागप्रमिता:" पाठ छूटा हुआ जान पड़ता है, क्योंकि उक्त वाक्यके आगेका कथन मनुष्य पर्याप्त और मनुयिनी इन दोनों की अपेक्षासे किया गया है। पृष्ठ 396 पंक्ति 9 में 'तल्लक्षणसमचतुरस्ररज्जु' पाठसे घनरज्ज का बोध होने में कठिनाई जाती है। कारण कि रज्जुसे असंख्यात कोटि योजन प्रमाण एक आकाशप्रदेशपवित ली गई है और लोकको 343 धनरज्ज प्रमाण कहा गया है। इसी तथ्य को ध्यानमें रखकर उक्त पृष्ठ की पंक्ति 33 में "और तीनसौ तेतालीस राजु" के स्थानमें "और तीनसौ तेतालोस धनराजु" ठीक प्रतीत होता है। आगे इसी पैरा की पंक्ति 23 में सासादन सम्यग्दृष्टि जीव अग्निकायिक, वायुकायिक, नारकी और सब सूक्ष्मजीवों को छोड़कर अन्यत्र सभी जगह उत्पन्न होता है यह कहा है और इसके प्रमाणस्वरूप एक गाथा भी उद्धतकी गई है। किन्तु यहाँ इतना और विशेष जान लेना चाहिए कि यह जीव विकलत्रयों, अपर्याप्तकों और असंज्ञियोंमें भी नहीं उत्पन्न होता और गाथोक्त जिन एकेन्द्रियोंमें यह उत्पन्न होता है उनमें उत्पन्न होने के प्रथम समयमें मिथ्यात्व गुणस्थान हो जाता है। पृष्ठ 399 (पं० 1 और 3) में "मारणान्तिकादि' पद के स्थानमें केवल मारणान्तिक पद होना चाहिए, क्योंकि संयतासंयत अवस्थामें उपपाद पद सम्भव नहीं है। इसी प्रकार इसी पृष्ठ की पं० 4 में संयतासंयतों के शुक्लले श्यामें केवल मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा ही कुछ कम छह वटे चौदह राजु स्पर्शन बनता है इतना विशेष जानना चाहिए । तथा पंक्ति 5 में 'द्यपेक्षया" के आगे 'षट्रज्जवः-स्पष्टाः" इतना पाठ और होना चाहिए। ___ इसी पृष्ठ की पं० 35-36 में 'सासादनस्य तत्र सा न सम्भवति" इस वाक्य में “सा" पदका अर्थ वह (मारणान्तिकादि अवस्था)-- सम्भव नहीं है--ऐसा होना चाहिए। पृष्ठ 401 पं० 27 से लेकर-असंयतसम्यग्दष्टिका एकजीवकी अपेक्षा उत्कृष्टकाल घटित करने हए धवला पु० 4 पृष्ठ 347 में इस प्रकार घटित किया है-एक प्रमत्त आदि गुणस्थान वाला जीव एक समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति लेकर अनत्तर विमानवासी देवों में उत्पन्न हुआ। पुनः वहाँ से च्युत होकर पूर्वकोटि की आयु के साथ मनुष्य हुआ। वहाँ जब अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाय तब असंयम भाव को छोड़कर संयमी हो गया । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तप्रमाण इस संयमके कालसे कम एक पूर्वकोटि और एक समय कम तेतीस सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है। पृष्ठ 402 (42-1) में पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि के उत्कृष्ट काल के निरूपणमें जो पूर्वकोटि पृथकत्वका अर्थ 96 पूर्वकोटि किया है सो वहाँ 95 पूर्वकोटि पृथकल्बकाल अर्थ होना चाहिए, क्योंकि अन्तिम बार पुरुषवेदियोंमें सात पूर्वकोटि काल ही लिया गया है । तथा मध्य में जो पचेन्द्रिय अपर्याप्तमें आठ बार उत्पन्न कराया है सो उसका भी समर्थन आगममे नहीं होता। वहाँ मात्र बीच में एक बार पंचेन्द्रिय अपर्याप्त में उत्पन्न कराया गया है । देखो, धवला पु. 4, पृ० 3681 पृष्ठ 406 (46-12 पं० 33) में जो पहली बार छ्यासठ सागरोपम तक वेदकसम्यक्त्व के साथ रखा है सो पहली बार भी दूसरी बारके समान अन्तर्मुहूर्त कम छ्यासठ सागरोपमकाल तक वेदक-सम्यक्त्वके साथ रखना चाहिए, क्योंकि इससे आगे अन्तर्महूर्त में वह नियमसे क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त करते समय अन्तमें कृत्यकृत्य-वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है जो यहाँ लेना नहीं है। पृष्ठ 411 (59-9, 14) से लेकर-सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में सम्यग्मिथ्यात्वका क्षायोपशमिकपना सिद्ध करते हए सम्यग्मिथ्यात्व के उदयको देशाघातीपना सिद्ध करने के लिए उपचारका सहारा लिया गया है। किन्तु धवला पु० 5 पृष्ठ 198 में जात्यन्तर स्वभाव सम्यग्मिथ्यात्वके उदयमें श्रद्धानाश्रद्धान रूप मिश्रभाव उत्पन्न होता है, मात्र इसलिए इस गुणस्थान में दर्शनमोहनीयकी अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव घटित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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