________________
सर्वार्थसिद्धि
पष्ठ 416 (145.6, पं0 23) से लेकर—जो चरमशरीरी होते हैं वे अनपवयं आयुवाले होते हैं। इसका अर्थ है कि पूर्वभवमें वे जितनी आयु लेकर भवका छेद करने में समर्थ अन्तिम मनुष्यपर्याय में उत्पन्न होते हैं उस पर्याय में भुज्यमान आयुका तो उत्कर्षण होता नहीं । अपनी योग्यतानुसार अपवर्तन अर्थात् अपकर्षण होना अवश्य सम्भव है। पर चरमशरीरी जीवकी आयु अनपवर्त्य होती है, इसलिए अग्निदाह, विष आदिके प्रयोग द्वारा उसका छेद नहीं होता ऐसा नियम है। इसी नियम का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र अध्याय दोके अन्तिम सूत्र में किया गया है, ऐसा यहां समझना चाहिए । उक्त सूत्र में जो विशेषण के रूप में उत्तम पद आया है उससे सर्वार्थसिद्धि आदिमें केवल तीर्थंकरोंके शरीरका ही ग्रहण नहीं किया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। किन्तु सभीका यह शरीर अन्तिम होनेसे उत्तम होता है। इसी सूत्रकी व्याख्यामें सर्वार्थसिद्धिमें कहा भी हैचरमस्य बेहस्योत्कृष्टत्वप्रदर्शनार्यमुत्तमग्रहणं नार्थान्तरविशेषोऽस्ति।
पृष्ठ 427 (354-7, पं. 32)-अभिन्नाक्षर दशपूर्वधर और भिन्नाक्षर दशपूर्वधर में दशपूवियों के दो भेद हैं जो क्रमसे दशपूर्वोका अध्ययन करनेपर रोहिणी आदि महा और लघु विद्या-देवताओंके उपस्थित होनेपर मोहको नहीं प्राप्त होते हैं वे अभिन्नाक्षर दशपूर्वी कहलाते हैं और जो मोहको प्राप्त हो जाते हैं वे भिन्नाक्षर दशपूर्वी कहलाते हैं।
यह मूल सर्वार्थसिद्धि-वृत्ति, उसका अनुवाद और परिशिष्ट-2में जो विशेष संशोधन हमारे लक्ष्यमें आये उनका यह संक्षिप्त विवरण है । अनुवादमें यत्र-तत्र और भी संशोधन किये गये हैं वे सामान्य या स्पष्टीकरण मात्र होनेसे उनको हमने इस विवरणमें सम्मिलित नहीं किया है। फिरभी एक-दो बातोंका संकेत करदेना यहाँ हम प्रयोजनीय मानते हैं। कारण कि जिसके लिए आगममें जो संज्ञा प्रयुक्त हुई हो उसीका अनुवाद आदिमें प्रयोग होना चाहिए। उदाहरणार्थ
1. आगममें सर्वत्र संख्या विशेषका ज्ञान करानेके लिए पल्य शब्दका प्रयोग न होकर पल्योपम शब्दका प्रयोग हुआ है, इसलिए हमने अपने अनुवादमें मूलके अनुसार ही पल्योपम शब्दको स्वीकार करके सर्वत्र पल्यके स्थानमें पल्योपम कर दिया है। इसी प्रकार सागरके स्थानमें सागरोपम किया गया है।
2. मात्र हमने यह संशोधन अपने अनुवादमें ही कियाहै। परिशिष्ट-2के अनुवादमें यह संशोधन नहीं किया गया है सो वहां भी उक्त विधिसे पल्यके स्थानमें पल्योपम और सागरके स्थानमें सागरोपम समझ लेना चाहिए।
3. अन्य अनुवाद 1. सर्वार्थसिद्धि-वृत्तिके अन्य कितने अनुवाद हुए हैं इसकी हमें पूरी जानकारी नहीं है। इतना अवश्य है कि सर्वप्रथम इसपर पं. श्री जयचन्दजी छावड़ा कृत भाषा-वचनिका प्रसिद्ध है। इसके दो संस्करण हमारे सामने हैं। पहला संस्करण कहाँसे मुद्रित हुआ था इसका आभास मुद्रित प्रतिके देखनेसे नहीं मालूम होता, कारण कि उसके प्रारम्भिक कई पृष्ठ इस प्रतिमें नहीं हैं। दूसरी प्रति श्रुतभंडार व ग्रन्थप्रकाशन समिति फलटनसे मुद्रित हुई है। इसे देखनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह भाषा-वचनिका रूपमें लिखी गई है, अतः यह सर्वार्थसिद्धि-वृत्तिका अनुवाद होते हुए भी पं. जी ने यत्र-तत्र अपनी ओरसे विशेष खुलासा भी किया है। उस समय तक छपने की पद्धति प्रचलित नहीं हुई थी, अतः पं० जी ने जिस हस्तलिखित प्रति के आधार से अपनी भाषा-वचनिका लिखी है उसमें भी वह पाठ नहीं था जिसे हमने पृष्ठ 17 टिप्पण 1 में मूलमें से अलग किया है । इतना अवश्य है कि स्पर्शन प्ररूपणाकी अपेक्षा लेश्या मार्गणाके स्पर्शन-कथनके प्रसंगसे कृष्णादि तीन लेश्यावाले सासादन सम्यग्दृष्टियोंके स्पर्शनका कथन करते हुए 'द्वादशभागाः कुतो न लभ्यन्ते'इत्यादि कथन द्वारा जो मतान्तरका विधान किया है वह पाठ जिस हस्तलिखित प्रतिसे पं० जी ने अनूदित किया है वह उसमें मौजूद है। परन्तु सत्, संख्या आदि प्ररूपणाओं पर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि यह पाठ मूल सर्वार्थसिद्धि-वृत्तिका नहीं है और इसीलिए दिल्लीकी द्वितीय हस्तलिखित प्रतिके आधारसे हमने उसे टिप्पणी सं० 1 में देकर मूल में से अलग कर दिया है।
2. मालूम पड़ता है, दूसरी भाषा-वचनिका पं० श्री सदासुखजीने भी लिखी थी जो हमारे सामने नहीं होनेसे उसपर हम विशेष प्रकाश नहीं डाल रहे हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org