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क्येि हुये है । अपने आपको खो कर और से और बनाहुआ है शरीर को ही आत्मा मान कर अहंकारमे फंसा हुआ होता है।
और अगर कही उसे दवा पाया, शरीर और आत्मा को मिन्न भिन्न मी समझ पाया तो भी शरीर को अपना जरूर मानता है अपनी बुद्धि में शरीर के साथ होनेवाले सम्बन्ध का विच्छेद नही कर पाता विलोये गये हुये दही के समान है जैसे कि विलोये हुये दही-मस्तु मेंसे भी उसका मक्खन पृथक् नही हुवा है उसी में पड़ा है वैसे ही यह भी शरीर के स्नेह को लिये हुये है ममता में डूब रहा है समता से विलकुल दूर है यही इसकी भूल है जो कि अनर्थ का मूल है यही नीचे वता रहे हैं -
अहन्त्वमेतस्य ममत्वमेतन्मिथ्यात्वनामानुदधचथेतः । अन्धस्यहेतुत्वमुपैत्यष्यो पालम्भिनश्चौर्यमिवानदस्योः । १६॥
अर्थात्- इस संसारी प्राणी की उपर्युक्त हन्ता और ममता करना ही इसका पागलपन है भूल है खोटापन या विगाड़ है इसको हमारी आगम भाषा मे मोह या मिथ्यात्व कहा है । अथवा यों कहो कि शरीरादिको मे अहंकार ममकार लिये हुये है, परवस्तुवों को हथियाये हुये है यही इसका मिथ्यात्व है चोरटापन है, पर वस्तुवों को अपनाने वाला चोर होता है। वह जहां भी दीखपाना है उसे जो भी कोई देखता है पकड़कर बांधता है मारता पीटता कप्ट देता है और इस चोर को वह सव सहना पड़ता है क्यों कि वह अपराधी है