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-आतम हित हेतु विरागज्ञान, ते लखे आपको कष्टदान । रागादि प्रगटजे दुःख देन, तिन ही को सेवत गिनत चैन ।
छह ढाले की इस उक्ति के अनुसार मिथ्याष्टिजीव तो वीतरागता और विज्ञान का सम्पादन करनेवाली बातो को कष्टदायक मानकर उनसे दूर भागता है और जहां पर रागद्वेष को पोषण मिलता हो ऐसी बातों को च्याव के साथ स्वीकार करता है, परन्तु सम्यग्दृष्टिजीव का कार्य इससे उलट होता है। वह पूर्वकृत कर्म की चपेट में आकर भलेही विषयभोगों की तरफ लुढक पड़ता है फिर भी उसके उत्तर क्षणमें उसके बारेमें पश्चात्ताप करके वीतरागतो की वातोंको दृढता के साथ बलपूर्वक पकड़ता है इसी का नाम सदाचार है जो कि सातवें गुणस्थानतक हुवाकरता है उसकेबाद क्या होताहै सोबताते हैं
निवृत्तिरूपं चरणं मुदेवः श्रद्धानमाहादृढमेव देवः श्रुतं विभावान्वयि सूक्ष्मराग-गुणस्थालान्तं शृणुमोनिरागः? __अर्थात्- इसी प्रकार हे मले आदमी सुनो श्री जिनभगवान ने हमे बताया है कि सातवेंगुणस्थान तक में जो श्रद्धान होता है वह तो अनवगाढरूप और श्रुतज्ञान जो होता है वह आत्मा में होनेवाले वैभाविक परिणामों का बतानेवाला होता है तथा उनसे उत्तरोत्तर बचते चले जाना उन्हें दूर करते रहना, उन्हें अपने में न होनेदेना यही वहां पर आत्मा का कार्य रहजाता है जो कि निवृत्यात्मक चारित्र कहाता है जो कि तुम्हारे और हमारे सरीखोंके लिये प्रसन्नताकारक माना गया है। जैसे