________________
: १५:
अशरण-सूत्र
( १८५) मूर्ख मनुष्य घन, पशु और जातिवालो को अपना शरण मानता है और समझता है कि ये मेरे है' और 'मै उनका हूँ। परन्तु इनमे से कोई भी आपत्तिकाल में प्राण तथा शरण का देनेवाला नही।
( १८६) जन्म का दुख है, जरा (वुढापा) का दुख है, रोग और मरण का दुख है । अहो ! ससार दुःखरूप ही है । यही कारण है कि यहां प्रत्येक प्राणी जव देखो तव क्लेश ही पाता रहता है।
(१८७ ) यह शरीर अनित्य है, अशुचि है, अशुचि से उत्पन्न हुआ है, दुख और क्लेशो का धाम है । जीवात्मा का इसमें कुछ ही क्षणो के लिए निवास है, आखिर एक दिन तो अचानक छोड़कर चले ही जाना है।
( १८८) स्त्री, पुत्र, मित्र और वन्धुजन सब कोई जीते जी के ही साथी है, मरने पर कोई भी पीछे नहीं आता।