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विवाद-सूत्र
१७३ ( ३२५) तज्जीववच्छरीरवाद
ससार में जितने भी शरीर है, वास्तव मे वे ही एक-एक आत्मा है-अर्थात् प्रात्मा या जीव जो कुछ भी है, यह शरीर ही है। शरीरनाश के वाद मूर्ख या पडित, धर्मात्मा या पापी परलोक में जानेवाला कोई भी नहीं रहता। क्योकि शरीर से पृथक् कोई भी सत्त्व (प्राणी) प्रोपपातिक (एक जन्म से दूसरे जन्म मे उत्पन्न होनेवाला) नहीं है।
( ३२६ ) न पुण्य है, न पाप है, और न इन दोनो के फलस्वरूप प्रस्तुत दृश्य जगत् से अतिरिक्त परलोक के नाम से दूसरा कोई जगत् ही है। शरीर के नाश के साथ ही तत्स्वरूप देही (आत्मा) का भी नाश हो जाता है।
( ३२७ ) अक्रियावाद
आत्मा करनेवाला या करानेवाला-यो कहिए कि किसी भी प्रकार से कुछ भी क्रिया करनेवाला नही है। इसी भाति कितने ही प्रगल्भ (घृष्ट) होकर आत्मा को प्रकारक (अकर्ता) बतलाते
है।