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वाल-सूत्र
११५ ( २०६ ) अनायं मनुष्य काम-भोगो के लिए जब धर्म को छोडता है, तव वह भोग-विलास में भूच्छित रहनेवाला मूर्ख अपने भयकर भविष्य को नहीं जानता।
(२०७ ) जिस तरह हमेशा भयभ्रान्त रहनेवाला चोर अपने ही दुष्कर्मों के कारण दुख उठाता है, उसी तरह मूर्ख मनुष्य भी अपने दुराचरणो के कारण दुख पाता है, और वह अतकाल में भी सवर धर्म की प्राराधना नही कर सकता।
(२०८) जो भिक्षु प्रव्रज्या लेकर भी अत्यन्त निद्राशील हो जाता है, खा-पीकर मजे से सो जाया करता है, वह 'पाप-श्रमण' कहलाता है।
(२०६) वैर रखनेवाला मनुष्य हमेशा वैर ही किया करता है, वह वैर में ही आनन्द पाता है। हिंसाकर्म पाप को उत्पन्न करनेवाले है, अन्त मे दुख पहुंचानेवाले है। ..
(२१०) यदि अज्ञानी मनुष्य महीने महीनेभर का घोर तप करे और पारण के दिन केवल कुशा की नोक से भोजन करे, तो भी वह सत्पुरुषो के बताये धर्म का आचरण करनेवाले मनुष्य के सोलहवें हिस्से को भी नहीं पहुंच सकता।