Book Title: Samyaktva Sara Shatak
Author(s): Gyanbhushan Maharaj
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 391
________________ १५५ भिक्षु-सूत्र ( २६१ ) जो कलहकारी वचन नहीं कहता, जो क्रोध नहीं करता, जिसकी इन्द्रियाँ प्रचंचल है, जो प्रशान्त है, जो सयम में ध्रुवयोगी (सर्वथा तल्लीन) रहता है, जो सकट आने पर व्याकुल नहीं होता, जो कभी योग्य कर्तव्य का अनादर नहीं करता, वही भिक्षु है। ( २६२ ) जो कान मे काँटे के समान चुभनेवाले आक्रोश वचनो को, प्रहारों को, तथा अयोग्य उपालभो को शान्तिपूर्वक सह लेता है, जो भीपण अट्टहास और प्रचण्ड गर्जनावाले स्थानो में भी निर्भय रहता है, जो सुस-दुःख दोनो को एकसमान समभावपूर्वक सहन करता है, वही मिक्ष है। ( २९३ ) जो शरीर से परीपहो को धैर्य के साथ सहन कर ससार-गर्त से अपना उद्धार कर लेता है, जो जन्म-मरण को महाभयकर जानकर सदा श्रमणोचित तपश्चरण में रत रहता है, वही भिक्षु है। ( २६४ ) जो हाथ, पांव, वाणी और इन्द्रियो का यथार्थ संयम रखता है, जो सदा अध्यात्म-चिंतन में ही रत रहता है, जो अपने आपको

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