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मिनु-सूत्र
१५९ ( २९८ ) जो जाति का अभिमान नहीं करता, जो रूप का अभिमान नहीं करता, जो लाभ का अभिमान नहीं करता, जो श्रुत (पांडित्य) का अभिमान नहीं करता, जो सभी प्रकार के अभिमानो का परित्याग कर केवल धर्म-ध्यान में ही रत रहता है, वही भिक्षु है।
( २६९) जो महामुनि आर्यपद (सद्धर्म) का उपदेश करता है, जो स्वय धर्म में स्थित होकर दूसरो को भी धर्म में स्थित करता है, जो घरगृहस्थी के प्रपच से निकलकर सदा के लिए कुशील लिंग (निन्ध वेश) को छोड़ देता है, जो किसीके साथ हंसी-ठट्ठा भी नही करता, वही भिक्षु है।
( ३०० ) इस भांति अपने को सदैव कल्याण पथ पर खड़ा रखनेवाला भिक्षु अपवित्र और क्षणभगुर शरीर में निवास करना हमेशा के लिए, छोड़ देता है, जन्म-मरण के बन्धनो को सर्वथा काटकर अपुनरागमगति (मोक्ष) को प्राप्त होता है।