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: २३ : मोक्षमार्ग-सूत्र
(३०१) भन्ते कैसे चले? कैसे खडा हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोये ? कैसे भोजन करे? कैसे वोले ?-जिससे कि पाप-कर्म का बन्धन न हो।
( ३०२) आयुष्मन् । विवेक से चले, विवेक से खडा हो; विवेक मे बैठे; विवेक से सोये, विवेक से जिन करे; और विवेक से ही बोले, तो पाप-कर्म नहीं बांध सकता।
(३०३ ) जो सब जीवो को अपने ही समान समझता है, अपने, पराये, सवको समान दृष्टि से देखता है, जिसने सव आत्रवो का निरोष कर लिया है, जो चचल इन्द्रियो का दमन कर चुका है, उसे पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता।
(३०४) प्रथम ज्ञान है, पीछे दया। इसी क्रम पर समग्र त्यागीवर्ग अपनी सयम-यात्रा के लिए ठहरा हुआ है। भला, अज्ञानी मनुष्य क्या करेगा ? श्रेय तथा पाप को वह कैसे जान सकेगा ?