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अप्रमाद-सूत्र
( ११०) जीवन असंस्कृत है-अर्थात् एक वार टूट जाने के बाद फिर नहीं जुडता; अत. एक क्षण भी प्रमाद न करो।
'प्रमाद, हिसा और असयम में अमूल्य यौवन-काल विता देने के बाद जव वृद्धावस्था पायेगी, तब तुम्हारी कौन रक्षा करेगा -तव किसकी शरण लोगे ?' यह खूब सोच-विचार लो।
जो मनुष्य अनेक पापकर्म कर, वैर-विरोघ वढाकर, अमृत की तरह धन का संग्रह करते है, वे अन्त में कर्मों के दृढ पाश में बंधे हुए सारी धन-सम्पत्ति यही छोडकर नरक को प्राप्त होते हैं।
( ११२ ) प्रमत्त पुरुष धन के द्वारा न तो इस लोक में ही अपनी रक्षा कर सकता है और न परलोक मे । फिर भी धन के असीम मोह से मूढ मनुष्य दीपक के बुझ जाने पर जैसे मार्ग नही दीख पड़ता, वैसे ही न्याय-मार्ग को देखते हुए भी नहीं देख पाता है।